ग़ज़ल : क़यामत होने को है
दिल से दर्द रुखसत होने को है
हमें ग़मों से फुर्सत होने को है
दुश्मनों के खेमे में दोस्ती के चर्चे
कुछ जीने की मोहलत होने को है
परतें उठने लगीं जो हर किरदार से
रुबरू जिंदगी से हकीकत होने को है
इज़हार ए प्यार लबों की ख़ामोशी में
आज नज़रों की बदौलत होने को है
हुए उनके दिल ए जागीर का हिस्सा
पूरी रियासत ए हसरत होने को है
आज फिर कोई क़यामत होने को है
रूह संग रूह की रिफ़ाक़त होने को है
बहुत सुन्दर
आपकी ग़ज़ल का मतला बहुत उम्दा है। उर्दू अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल भी आपने ग़ज़ब का किया है।
मरहबा!
मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं।
प्रणाम अंजना जी,
बढ़िया कविता।
पर जब भी कोई कविता पढता हूँ तो मुझे महान कवी प्रदीप की याद आ जाती है जिन्होंने कवितों में उर्दू के शब्दों का प्रयोग न के बराबर किया है
अच्छी ग़ज़ल, अंजना जी.