कविता

कुंवारी लडकियाँ …

कुंवारी लडकियाँ …
गिनती है पिता के माथे की शिकन
और फिर गिनती है अपनी उम्र
हाथ के उँगलियों में कई बार
हर बार चूक समझकर
दुहराने लगती है अपनी ही गिनती
माँ से पूछती है अपने जन्म की सही तारीख 
और दर्ज कर लेती है एक और अनचाहा सच
हमउम्र सहेलियां जब लौट आती है मायके
तो घनघना उठता है उसका फोन
और वो चहक कर पूछती है हाल
नव-विवाहिता एक सांस में
बोलती है ढेर सारा झूठ
और लडकियाँ देखने लगती है
उस झूठ से भी बड़ा कोई स्वप्न
देर रात माँ-पिता की फुसफुसाहट पर
पाते रहती है अपना कान
बगुले-सी लपक लेती है
पिता की चिंतित आवाज़ और माँ की चुप्पी
मन मसोस कर पूछती है
छोटे भाई से आज की तारीख
फिर बैठ जाती है खोलकर अपनी ही डिग्रियां
कुछ पुरानी धूमिल तस्वीरें
जो झांक रही होती है
स्कूल / कॉलेज के परिचय-पत्र से
कुछ चिट्ठियां कच्चे हाथों से लिखी गई
अपनी ही प्रवासी सहेलियों की
कुछ ग्रीटिंग्स , कुछ अबूझ चिट
पलटते-पलटते पहुँच जाती है
अपने ही सुन्दर अतीत के दिनों में
देखती है वैवाहिक रेखा का स्थान अपनी हथेली पर
रेखाओं की तीक्ष्णता को खरोंच कर
आश्वस्त होती है …
फिर खुली आँखों में पड़ी रहती है बिस्तर पर घंटों
हर सुबह इस उम्मीद में उठती है
कि पिता मांग ले उससे उसी की कोई अच्छी-सी तस्वीर
माँ हिदायत दे कि लगाया करे हल्दी चेहरे पर कभी-कभी
भाई जिद करे “दीदी अब तो बुन दो एक स्वेटर”
लगने लगे मजलिश पडोसी औरतों की
प्यारी लगने लगे चिढाने वाली बुढिया भी
कुंवारी लडकियाँ इन दिनों
कई-कई स्वप्न देखती है
हर स्वप्न झूठा भी नहीं होता
कुछ स्वप्न झूठ से भी सुन्दर होता है
कुछ स्वप्न ..निरा स्वप्न की तरह रहता है कायम
स्वप्न का टूटना
एक घरौंदे के टूटने-सा नहीं होता है
एक उफनती नदी के बाँध के टूटने-सा होता है
जहाँ लडकियाँ बहा देती है अपनी सारी उम्मीदें
ताकि उम्मीद बची रहे नदी में
और नदी बची रहे उम्मीदों में
-प्रशांत विप्लवी-

2 thoughts on “कुंवारी लडकियाँ …

  • केशव

    प्रणाम

    उत्तम

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने किसी विवाहयोग्य लड़की कि भावनाओं को सही रूप में प्रकट किया है.

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