कविता

गद्य काव्य : एक चुप्पे शख्स की डायरी 46 वां पन्ना

ठहर जाने से खत्म नहीं हो जाते रास्ते…थक कदम गए…रास्ते नहीं । हर छूटते मील के पत्थर को देखना…खुद को दिलासा देना है और सामने पड़े रास्ते को देखना बस एक उम्मीद…। पत्थर चले कहाँ तक की सूचना है , कितना बाकी है इसे नहीं पता…यह संशय भी साथ यात्रा करता है…पहुचेंगे वही , जहाँ से चले थे…धरती अपनी परिधि नहीं छोड़ती और रेखाएं कितनी भी खीचों , तुम्हारी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं…। गोले से बाहर नहीं जाती सोच….धरती पर चौखाने खीच देने से धरती चौकोर नहीं हो जाती…।

कदम चलने नहीं देते…रास्ते रुकने नहीं देते…इस तरह जारी है सफर….

माया मृग

एम ए, एम फिल, बी एड. कुछ साल स्‍कूल, कॉलेज मेंं पढ़ाया. कुछ साल अखबारों में नौकरी की. अब प्रकाशन और मु्द्रण के काम में हूं. किताबें जो अब तक छपी हैं- शब्‍द बोलते हैं (कविता 1988), कि जीवन ठहर ना जाए (कविता 1999), जमा हुआ हरापन (कविता 2013), एक चुप्‍पे शख्‍स की डायरी (गद्य कविता 2013), कात रे मन कात (स्‍वतंत्र पंक्तियां 2013). संपर्क पता : बोधि प्रकाशन, एफ 77, करतारपुरा इंडस्‍ट्रीय एरिया, बाइस गोदाम, जयपुर