गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल- ****चाह तुम्हारी****

मुझको कितनी चाह तुम्हारी।
हर पल देखूँ राह तुम्हारी।।
मन करता है गीत सुनाऊँ।
और सुनूँ मैं वाह तुम्हारी।।
आहत दिल को कितनी राहत।
देती एक निगाह तुम्हारी।।
भूल न पाऊँ याद कभी भी.
आह तुम्हारी आह तुम्हारी।।
सागर गहरा या तुम गहरे।
कैसे पाऊँ थाह तुम्हारी।।
आओ-देखो-जानो मुझको।
कितनी है परवाह तुम्हारी।।

डाॅ.कमलेश द्विवेदी
मो.09415474674

One thought on “ग़ज़ल- ****चाह तुम्हारी****

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर ग़ज़ल, डॉ साहब.
    ‘आहत दिल को कितनी राहत। देती एक निगाह तुम्हारी।।’
    ये पंक्तियाँ दिल को छू गयीं.

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