धर्म-संस्कृति-अध्यात्मब्लॉग/परिचर्चासामाजिक

मैं आस्तिक क्यों हूँ ? (भाग – ४)

नास्तिकता को बढ़ावा देने में एक बड़ा दोष अभिमान का भी हैं। भौतिक जगत में मनुष्य ने जितनी भी वैज्ञानिक उन्नति की हैं उस पर वह अभिमान करने लगता हैं और इस अभिमान के कारण अपने आपको जगत के सबसे बड़ी सत्ता समझने लगता हैं। एक उदहारण लीजिये सभी यह मानते हैं की न्यूटन ने Gravitation अर्थात गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज की थी। क्या न्यूटन से पहले गुरुत्वाकर्षण की शक्ति नहीं थी? थी मगर मनुष्य को उसका ज्ञान नहीं था अर्थात न्यूटन ने केवल अपनी अल्पज्ञता को दूर किया था और इसी क्रिया को अविष्कार कहा जाता हैं। सत्य यह हैं की जितनी भी भौतिक वैज्ञानिक उन्नति हैं वह अपनी अलपज्ञता को दूर करना हैं। मनुष्य चाहे कितनी भी उन्नति क्यों न कर ले वह ज्ञान की सीमा को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्यूंकि एक तो मनुष्य की शक्तियां सिमित हैं जबकि ज्ञान की असीमित हैं दूसरी असीमित ज्ञान का ज्ञाता केवल एक ही हैं और वो हैं ईश्वर जिनमें न केवल वो ज्ञान भी पूर्ण हैं जो केवल मानव के लिए हैं अपितु वह ज्ञान भी हैं जो मानव से परत केवल ईश्वर के लिए हैं।

स्वयं न्यूटन की इस सन्दर्भ में धारणा कितनी प्रासंगिक हैं की

“I do not know what I may appear to the world, but to myself I seem to have been only like a boy playing on the sea-shore, and diverting myself in now and then finding a smoother pebble or a prettier shell than ordinary, whilst the great ocean of truth lay all undiscovered before me.”

न्यूटन ने हमारी अवधारणा का समर्थन कर अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया हैं।

अब प्रश्न यह हैं की धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध हैं और क्यूंकि नास्तिक लोगो का यह मत हैं की धर्म और विज्ञान एक दूसरे के शत्रु हैं। नास्तिक लोगो की इस सोच का  मुख्य कारण यूरोप के इतिहास में चर्च द्वारा बाइबिल के मान्यताओं पर वैज्ञानिकों द्वारा शंका करना और उनकी आवाज़ को सख्ती से दबा देना था। उदहारण के लिए गैलिलियो को इसलिए मार डाला गया क्यूंकि उसने कहा था की पृथ्वी सूर्य के चारों और भ्रमण करती हैं जबकि चर्च की मान्यता इसके विपरीत थी। चर्च ने वैज्ञानिकों का विरोध आरम्भ कर दिया और उन्हें सत्य को त्याग कर जो बाइबिल में लिखा था उसे मानने को मजबूर किया और न मानने वालो को दण्डित किया गया। इस विरोध का यह परिणाम निकला की यूरोप से निकलने वाले वैज्ञानिक चर्च को अर्थात धर्म को विज्ञान का शत्रु मानने लग गए और उन्होंने ईश्वर की सत्ता को नकार दिया। दोष चर्च के अधिकारीयों का था नाम ईश्वर का लगाया गया। यह विचार परम्परा रूप में चलता आ रहा हैं और इस कारण से वैज्ञानिक अपने आपको नास्तिक कहते हैं।

अब प्रश्न यह उठता हैं की धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध हैं? इसका उत्तर हैं की “Religion and Science are not against each other but they are allies to each other” अर्थात धर्म और एक दूसरे के विरोधी नहीं अपितु सहयोगी हैं। जैसे विज्ञान यह बताता हैं की जगत कैसे बना हैं जबकि धर्म यह बताता हैं की जगत क्यूँ बना हैं। जैसे मनुष्य का जन्म कैसे हुआ यह विज्ञान बताता हैं जबकि मनुष्य का जन्म क्यूँ हुआ यह धर्म बताता हैं।

भौतिक विज्ञान के लिए आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करना असंभव हैं मगर इनका समाधान धर्म द्वारा ही संभव हैं। धर्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे के सहयोगी हैं और इसी तथ्य को आइंस्टीन ने सुन्दर शब्दों में इस प्रकार से कहा हैं – “Science without religion is a lame and religion without science is blind.”

विज्ञान धर्म के मार्गदर्शन के बिना अधूरा हैं और सत्य धर्म विज्ञान के अनुकूल हैं,  अन्धविश्वास अवैज्ञानिक होने के कारण त्याग करने योग्य हैं।

एक कुतर्क यह भी दिया जाता हैं की अगर ईश्वर हैं तो उन्हें वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध करके दिखाए।  इसका समाधान वायु के अतिरिक्त मन, बुद्धि, सुख, दुःख, गर्मी, सर्दी, काल, दिशा, आकाश ये सभी निराकार हैं।क्या ये सभी वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध होते हैं? नही। परन्तु फिर भी इनका अस्तित्व माना जाता हैं फिर केवल ईश्वर को लेकर यह शंका उठाना नास्तिकता का समर्थन करने वाले की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाता हैं।  सत्य यह हैं की वैज्ञानिक प्रयोगों से ईश्वर की सत्ता को सिद्ध न कर पाना आधुनिक विज्ञान की कमी हैं जबकि आध्यात्मिक वैज्ञानिक जिन्हे हम ऋषि कहते हैं चिरकाल से निराकार ईश्वर को न केवल अपनी अंतरात्मा में अनुभव करते आ रहे हैं अपितु जगत के कण कण में भी विद्यमान पाते हैं।

दंगे, युद्ध, उपद्रव आदि का दोष ईश्वर को देना एक और मूर्खता हैं। यह पहले ही स्पष्ट किया जा चूका हैं की दंगे, उपद्रव आदि मज़हब या मत-मतान्तर आदि को मानने वालो के स्वार्थ के कारण होता हैं नाकि धर्म के कारण होता हैं। एक उदहारण लीजिये १९४७ से पहले हमारे देश में अनेक दंगे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में हुए थे। इन दंगों का मुख्य कारण यह बताया जाता था की हिन्दुओं के धार्मिक जुलुस के मस्जिद के सामने से निकलने से मुसलमानों की नमाज़ में विघ्न पड़ गया जिसके कारण यह दंगे हुए।  मेरा स्पष्ट प्रश्न हैं की जो व्यक्ति ईश्वर की उपासना या नमाज़ में लीन होगा उसके सामने चाहे बारात भी क्यों न निकल जाये उसे मालूम ही नहीं चलेगा परन्तु जो व्यक्ति यह बांट जो रहा हो की कब हिन्दुओं का जुलुस आये कब हम नमाज़ आरम्भ करे और कब दंगा हो तो इसका दोष ईश्वर को देना कहा तक उचित हैं।

संसार में जितनी भी हिंसा ईश्वर के नाम पर होती हैं उसका मूल कारण स्वार्थ हैं नाकि धर्म हैं।

  1.        शंका- ईश्वर में विश्वास रखने के क्या लाभ हैं?

समाधान- ईश्वर में विश्वास रखने के निम्नलिखित लाभ हैं

१. आदर्श शक्ति में विश्वास से जीवन में दिशा निर्धारण होता हैं

२. सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर में विश्वास से पापों से मुक्ति मिलती हैं

३. ज्ञान के उत्पत्तिकर्ता में विश्वास से ज्ञान प्राप्ति का संकल्प बना रहता हैं

४. सृष्टि के रचनाकर्ता में विश्वास से ईश्वर की रचना से प्रेम बढ़ता हैं

५. अभयता, आत्मबल में वृद्धि, सत्य पथ का अनुगामी बनना, मृत्यु के भय से मुक्ति, परमानन्द सुख की प्राप्ति, आध्यात्मिक उन्नति, आत्मिक शांति की प्राप्ति, सदाचारी जीवन आदि गुण की आस्तिकता से प्राप्ति होती हैं

६. स्वार्थ, पापकर्म, अत्याचार, दुःख, राग, द्वेष, इर्ष्या, अहंकार आदि दुर्गुणों से मुक्ति मिलती हैं

आस्तिकता का सबसे बड़ा लाभ एक आदर्श शक्ति में विश्वास होता हैं। एक उदहारण लीजिये कोई भी छात्र अपनी कक्षा के सबसे अधिक अंक लाने वाले अथवा अन्य गतिविधियों में बढ़चढ़कर भाग लेने वाले छात्र का अनुसरण करने का प्रयास करता हैं क्यूंकि उसका यह विश्वास हैं की वह आदर्श हैं एवं हमें उन जैसा बनना चाहिए। यही नियम समाज के मनुष्यों पर भी लागु चिरकाल होता हैं। वे समाज के सबसे प्रबुद्ध, सबसे गुणी, सबसे प्रभावशाली व्यक्ति का अनुसरण करते हैं। जीव अलपज्ञ हैं, ईश्वर सर्वज्ञ हैं। जीव कितना भी आदर्श क्यों न हो ,कितना भी गुणी क्यों न हो परन्तु कोई न कोई कमी उसमें रह ही जाती हैं, उससे इतने बड़े जीवन में कोई न कोई गलती हो सकती हैं।  जबकि ईश्वर में कमी या गलती की कोई सम्भावना नहीं हैं क्यूंकि ईश्वर पूर्ण, सर्वज्ञ एवं त्रुटि रहित हैं। जैसा आप अनुसरण करेंगे वैसा आपके ऊपर प्रभाव पड़ेगा। फिर एक ऐसी सत्ता में विश्वास करने में अनेक लाभ हैं जो सबसे आदर्शवान हैं और उसी शक्ति को ईश्वर कहते हैं। संक्षेप में ईश्वर में विश्वास से एक आदर्श शक्ति में विश्वास बनता हैं और उस आदर्श शक्ति के विश्वास से उसके समान गुणों के विकास करने का अवसर मनुष्यों को मिलता हैं। बिना आदर्श शक्ति में विश्वास के मनुष्य इधर उधर भटकता रहता हैं और पाप-पुण्य में भेद की कमी के चलते जीवन का नाश कर लेता हैं। इसलिए आस्तिकता मनुष्य का मार्गदर्शन करती हैं बशर्ते की मनुष्य को ईश्वर के आदर्श गुणों से परिचय अवश्य होना चाहिए।

One thought on “मैं आस्तिक क्यों हूँ ? (भाग – ४)

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख. विज्ञान और आस्तिकता में कोई विरोध नहीं है. बड़े बड़े वैज्ञानिक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते रहे हैं, भले ही उसका कोई भौतिक प्रमाण न हो. ईश्वर के अस्तित्व को नकारना केवल अहंकार है और कुछ नहीं.
    आपने आस्तिकता के जो लाभ बताये हैं, मैं उनसे लगभग पूरी तरह सहमत हूँ. इसके साथ यह भी जोड़ लीजिये कि ईश्वर में विश्वास से व्यक्ति का मनोबल बना रहता है और वह बड़े-बड़े संकटों को सहज ही झेल जाता है. नास्तिक व्यक्ति ऐसी हालत में बड़ी जल्दी टूट जाते हैं. इसलिए आस्तिक होने में लाभ ही है, भले ही ईश्वर हो या न हो.

Comments are closed.