गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

पा गये मंजिल मुसाफिर पर ये कोशिश व्यर्थ है
वक्त ने आकर कहा ये जिन्दगी की शर्त है

आदमी में हैं कई कमियां खुदा कैसे कहें
इतनी सच्ची बात पर भी क्या तुम्हारा तर्क है

मौत से मिलवा भी देगी पर अभी संघर्ष कर
खो गया हो हम-सफर तो क्या सफर का अर्थ है

बीच में घुटके ही अब रह जाये हैं अपनी सदा
कीजिए क्या तह-ब-तह परछाइयों की पर्त है

मुल्क अपना ‘शान्त’ है ये बात भी कैसे कहें
हर तरफ आतंक है उड़ती हुई इक गर्द है

देवकी नंदन 'शान्त'

अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता, बिजली बोर्ड, उत्तर प्रदेश. प्रकाशित कृतियाँ - तलाश (ग़ज़ल संग्रह), तलाश जारी है (ग़ज़ल संग्रह). निवासी- लखनऊ

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी ग़ज़ल, शांत जी.

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