उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (छठी कड़ी)

द्रोपदी के स्वयंवर में धनुर्वेद की कठिन प्रतियोगिता में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन के विजयी होने के बाद की घटनायें कृष्ण की आंखों के सामने स्वप्न की तरह घूम गयीं।

एक अनजान ब्राह्मण युवक को प्रतियोगिता में सफल होते देखकर उपस्थित राजाओं का अहंकार जाग उठा। उन्होंने विवाद पैदा करने और ब्राह्मण युवक पर आक्रमण करने का भी प्रयास किया। लेकिन कृष्ण और बलराम ने अपनी युक्तियों से उनको निरुत्तर कर दिया। महाराजा द्रुपद ने भी स्पष्ट कह दिया कि अब यह ब्राह्मण युवक हमारा जामाता है और उसकी रक्षा करना अब हमारा दायित्व है। उसका कोई भी अनिष्ट करने का प्रयास पांचाल पर आक्रमण माना जाएगा। यह सुनकर सभी राजाओं को साँप सूँघ गया। इसलिए वे चुपचाप चले गये और अपने-अपने राज्यों को प्रस्थान कर गये।

उधर द्रोपदी को लेकर पांडव अपने निवास स्थान पर पहुंचे और माता कुंती से कहा कि ‘मां हम भिक्षा लाये हैं’, तो माता ने बिना देखे ही कह दिया कि उसे आपस में बांट लो। यह सुनकर पांडव एक-दूसरे की ओर देखने लगे। जब कुंती को पूरी बात बतायी गयी, तो उनको पता चला कि वह भिक्षा एक नारी के रूप में है। अपने वचन को सोचकर उनको बड़ा खेद हुआ। उन्होंने अर्जुन से कहा कि तुमने ही द्रोपदी को जीता है, अतः तुम उससे विवाह कर लो। परन्तु अर्जुन ने कहा कि बड़े भाई के अविवाहित रहते हुए मैं अकेला विवाह नहीं कर सकता और इससे माता के वचन का भी उल्लंघन होगा। हालांकि उससे पहले भीम राक्षस नारी हिडिम्बा से विवाह कर चुके थे, परन्तु वह एक संकटकालीन अवस्था थी और यह मर्यादा उस पर लागू नहीं होती।

तब युधिष्ठिर से कहा गया कि आप द्रोपदी से विवाह कर लें। लेकिन युधिष्ठिर ने भी स्पष्ट कह दिया कि द्रोपदी को अर्जुन ने जीता है, इसलिए मैं अकेला इससे विवाह करके अधर्म नहीं कर सकता। अन्ततः सभी में यह तय हुआ कि द्रोपदी सभी पांचों भाइयों से एक साथ विवाह करेगी।

तब तक ब्राह्मण युवक का वास्तविक परिचय द्रुपद को ज्ञात हो चुका था कि वह अर्जुन था। यह सोचकर द्रुपद बहुत प्रसन्न थे कि अन्ततः आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर उनका जामाता बन गया था। अब वे द्रोण से अपने अपमान का बदला चुका सकते थे। परन्तु जब विवाह संस्कार करने का समय आया और उनको पता चला कि कृष्णा का विवाह एक साथ पांचों पांडव भाइयों के साथ किये जाने का निश्चय हुआ है, तो उनके शोक का पारावार नहीं रहा। यह तो एक राजकुमारी तो क्या साधारण नारी के लिए भी घोर अपमान की बात थी कि उसके पांच पति हों। परन्तु पांडव अपने निश्चय से डिगने को तैयार नहीं थे। वे नहीं चाहते थे कि एक नारी के लिए उन भाइयों में फूट पड़ जाये। सभी की एकता उनके अस्तित्व के लिए अनिवार्य थी। कृष्ण ने भी उनको अपने निश्चय पर डटे रहने की राय दी थी।

तब यह विषय भगवान वेदव्यास के सम्मुख रखा गया, जो सूचना मिलते ही आ गये थे। उनके साथ अनेक ऋषि-मुनि भी थे। पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क रखे गये, पूर्व उदाहरण दिये गये। भगवान वेदव्यास ने निर्णय दिया कि यदि द्रोपदी को आपत्ति न हो, तो इसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है। अन्ततः द्रोपदी से पूछा गया, तो उसने कह दिया कि मुझे सभी भाइयों की साझा पत्नी बनना स्वीकार है। इस प्रकार सभी पांडवों का द्रोपदी से विवाह हुआ।

विवाह के पश्चात् कृष्ण और बलराम अपने साथियों को लेकर द्वारिका चले गये और पांडवों को द्रोपदी सहित हस्तिनापुर जाने के लिए राजा द्रुपद ने आवश्यक प्रबंध कर दिये। सूचना मिलते ही महामंत्री विदुर उनको लेने आ गये थे।

पांचाल में स्वयंवर के बाद ही कृष्ण की पहली बार अपनी बुआ कुंती और सभी फुफेरे भाइयों से भेंट हुई थी। कृष्ण को वह दिन अच्छी तरह याद था, जैसे घटनाएं अभी कल ही घटी हों। कृष्ण ने कुंती को पांडवों के साथ आते हुए देखकर ही समझ लिया था कि ये मेरी बुआ हैं। उन्होंने आगे बढ़कर बुआ के चरण स्पर्श किये और कहा मैं वासुदेव कृष्ण हूँ। फिर बलराम ने भी अपना परिचय देते हुए उनके चरण स्पर्श किये। दोनों को देखकर कुंती भावविभोर हो गयीं। अवश्य ही उन्होंने कृष्ण के बारे में सुन रखा होगा। उन्होंने कृष्ण और बलराम दोनों को देर तक गले से लगाया और उनका मस्तक सूंघा।

फिर ममेरे-फुफेरे भाइयों का आपस में परिचय हुआ, यद्यपि उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। युधिष्ठिर वय में कृष्ण से बड़े थे, इसलिए ‘प्रणाम, बड़े भाई’ कहते हुए वे युधिष्ठिर के चरण स्पर्श करने के लिए झुके। लेकिन युधिष्ठिर ने बीच में ही उनको कंधे से पकड़कर उठा लिया और गले से लगा लिया। बोले- ‘गोविन्द, तुम्हारे बारे में बहुत सुनता रहा हूँ। पर देखा पहली बार है। तुम्हें देखकर लगता तो नहीं है कि तुम इतने नटखट हो।’ इस पर सभी लोग हँस पड़े और सारा तनाव दूर हो गया।

अर्जुन और कृष्ण लगभग समवयस्क थे, यद्यपि कृष्ण थोड़े बड़े थे, इसलिए उनमें खूब घुट-घुटकर बातें होती थीं। जब तक सभी कांपिल्य नगरी में रहे, तब तक समय कैसे कट गया, पता ही नहीं चला। वे तभी अलग हुए जब पांडव हस्तिनापुर की ओर चले गये और कृष्ण अपने साथियों सहित द्वारिका की ओर निकल गये।

द्वारिका के मार्ग में कृष्ण पांडवों के बारे में ही सोचते रहे। जिस समय युधिष्ठिर और भीम का जन्म हुआ था, तब कृष्ण का जन्म हुआ ही नहीं था। जब शेष पांडवों का जन्म हुआ था, तब वे अबोध शिशु थे। गोकुल से मथुरा आने के बाद ही उनको अपने पिता वसुदेव से सभी सम्बंधियों का परिचय मिला था। उन्होंने ही बताया था कि सभी पांडव धर्मनिष्ठ और आज्ञाकारी हैं। वे अपने गुरुजनों का बहुत सम्मान करते हैं और आपस में एक-दूसरे को अत्यन्त प्रेम करते हैं, जैसे एक आत्मा और पांच शरीर हों।

वे सभी अपने गुरुओं के सर्वश्रेष्ठ और प्रिय शिष्य रहे हैं। उन्होंने किसी न किसी विद्या में अद्वितीय विशेषज्ञता प्राप्त की है। युधिष्ठिर ने धर्मशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का विशेष अध्ययन किया है और वे धनुष और गदा के अलावा भाला चालन में विशेष निपुण हैं। भीम अपने शारीरिक बल के कारण प्रसिद्ध हैं। उन्होंने गदायुद्ध में निपुणता प्राप्त की है। वे अपने सभी भाइयों की रक्षा करते हैं और माता तथा बड़े भाई की आज्ञाओं का पालन करते हैं। मंझले भाई अर्जुन ने धनुर्विद्या में इतनी प्रवीणता प्राप्त की है कि संसार में कोई भी उनकी समता नहीं कर सकता। नकुल और सहदेव दूसरी माता माद्री के पुत्र हैं। उनमें नकुल गणित और ज्योतिष में निपुण हैं और सहदेव पशु-पक्षियों के अद्वितीय ज्ञाता हैं। दोनों भाई तलवार चलाने में सिद्ध हस्त हैं. यह सब जानकर कृष्ण को बहुत हर्ष हुआ था।

मार्ग में वे युधिष्ठिर में बारे में गहराई से सोचने लगे। युधिष्ठिर को इस बात का संज्ञान था कि वे महान् भरतवंश के उत्तराधिकारी हैं और आगे चलकर उनको समस्त साम्राज्य संभालना है। इसलिए उचित ही उन्होंने धर्मशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। उनका व्यक्तित्व भी इसी के अनुसार धीर-गम्भीर था। वे कम बोलते थे, लेकिन उनकी बातों में सार होता था और वे एक भी शब्द अनावश्यक नहीं बोलते थे। कृष्ण ने सोचा कि आगे चलकर जिसको इतना बड़ा दायित्व निभाना है, उसने अपने व्यक्तित्व का सही दिशा में विकास किया है। भविष्य में महाराज युधिष्ठिर भरतवंश के गौरव को उच्चतम स्थिति में ले जायेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com