कविता

कुंडलिया छंद

बदला दिन और रात, आते ही आसाढ़
नाचने लगे खेतिहर, दिखाने लगे डाढ
दिखाने लगे डाढ, लगे वो बिजड़ा बोने
लौटे तम के ठांव, मचनिया चढे बिठौने
सुनते मेघ मल्‍हार, बजाते ढफ चंग तबला
बौछारों में भीग, गाँव का मौसम बदला।

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

One thought on “कुंडलिया छंद

  • विजय कुमार सिंघल

    छंद अच्छा है. ऐसे ही कुछ छंद और लगाइए.

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