धर्म-संस्कृति-अध्यात्मब्लॉग/परिचर्चासामाजिक

मैं आस्तिक क्यों हूँ? (भाग – ५)

सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर में विश्वास से पापों से मुक्ति मिलती हैं। एक उदहारण लीजिये एक बार एक गुरु के तीन शिष्य थे। गुरु ने अपने तीनों शिष्यों को एक एक कबूतर देते हुए कहा की इन कबूतरों को वहा पर मारना जहाँ पर आपको कोई भी न देख रहा हो। प्रथम शिष्य ने एक कमरे में बंद करके कबूतर को मार डाला, दूसरे ने जंगल में झाड़ी के पीछे कबूतर को मार डाला, तीसरा शिष्य कबूतर को बिना मारे ले आया। गुरु ने तीसरे शिष्य से पूछा की उसने कबूतर को क्यों नहीं मारा। उसने उत्तर दिया की मुझे ऐसा कोई स्थान ही नहीं मिला जहाँ पर मुझे कोई देख न रहा हो। हर स्थान पर निराकार और सर्वव्यापक ईश्वर विद्यमान हैं। ऐसे में मैं कबूतर के प्राण कैसे हर सकता था। गुरु ने उसे शाबासी दी और कहा की तुम मेरे पाठ को भली प्रकार से समझे हो।

आज आस्तिकता के नाम पर जितने पाखंड होते हैं वह ईश्वर को सर्वव्यापक और निराकार मानने से नहीं होते। कोई भी व्यक्ति मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर जाता हैं वह यही समझता हैं की ईश्वर केवल उसी स्थान पर हैं।  वहां से बाहर निकलते ही वह ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर पापकर्म में लिप्त हो जाता हैं। जो व्यक्ति हर समय, हर काल में, हर  स्थान पर ईश्वर की सत्ता को समझेगा वह  कभी किसी भी पापकर्म में लिप्त नहीं होगा। इस कारण से सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखने वाला व्यक्ति अपनी आस्तिकता के कारण पापों से बच जाता हैं।

ज्ञान के उत्पत्तिकर्ता में विश्वास से ज्ञान प्राप्ति का संकल्प बना रहता हैं। यह भावना हमें अभिमान और अहंकार से भी बचाती हैं एवं अपने से अधिक शक्तिशाली, अपने से अधिक बुद्धिमान,अपने से अधिक ज्ञानवान सत्ता में विश्वास होने से हम सभ्य, निर्मल एवं शांत भी बनते हैं। मनुष्य कभी ज्ञान की उत्पत्ति नहीं करता। जो कुछ भी उसे ज्ञान हैं वह अपने चारों और से देखने, पढ़ने अथवा सुनने आदि से  ग्रहण करता हैं। विद्यार्थी शिक्षक से ज्ञान अर्जित करता हैं। शिक्षक भी कभी स्वयं विद्यार्थी था। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले मनुष्यों ने ज्ञान की कभी उत्पत्ति नहीं करी। उन्हें यह ज्ञान जिस सत्ता ने उपलब्ध करवाया उस सत्ता को हम ईश्वर मानते हैं। वह सत्ता न केवल ज्ञानवान होनी चाहिए अपितु इस सृष्टि में पहले से विद्यमान होनी भी चाहिए और इस सृष्टि के अतिरिक्त अन्य सृष्टियों में भी होनी चाहिए तभी वह ज्ञान देने में सक्षम हैं। इस तथ्य से यह सिद्ध होता हैं की ईश्वर मनुष्य की कल्पना नहीं अपितु यथार्थ अनादि एवं ज्ञानवान सत्ता हैं और मनुष्य ईश्वर से ज्ञान ग्रहण करता हैं।

कुछ लोग ईश्वर के होने का साक्षात प्रमाण मांगते हैं। दर्शन ग्रंथों में प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमान, उपमान और आपात आदि  प्रमाण बताये गए हैं। अनुमान प्रमाण वहां पर प्रयोग होता हैं जहाँ पर प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध न हो।  सभी जानते हैं की बिना कर्ता के कोई कारण नहीं होता। इसे समझने के लिए एक उदहारण लेते हैं। आपके हाथ में एक घड़ी हैं उसे देखकर यह अनुमान लगाना सहज हैं की उसे बनाने वाला कोई घड़ीसाज भी तो होगाक्यूंकि कोई भी वस्तु का निर्माण बिना निर्माणकर्ता के नहीं हो सकता । वैसे ही इस जगत को देखकर, सूर्य,चन्द्रमा, ऋतुओं आदि को देखकर यह अनुमान लगाना सहज हैं की इस सारी व्यवस्था को बनाने वाला, इसे नियम में बांधने वाली कोई शक्ति तो ऐसी हैं जिसने यह सारी व्यवस्था सिद्ध की हैं। उसी शक्ति को हम ईश्वर कहते हैं। नास्तिक लोगो का यह कुतर्क की सब कुछ अपने आप हो रहा हैं इसके पीछे कोई शक्ति नहीं हैं गलत हैं क्यूंकि आप स्वयं परीक्षा करके देख लीजिये। एक स्थान पर सुबह से शाम तक एक पत्थर रख कर देखिये वह ऐसे ही पड़ा रहेगा। उसे अपने स्थान से हिलाने के लिए एक चेतन शक्ति की आवश्यकता हैं। उसी प्रकार से इस जगत को चलायमान करने वाली सत्ता का नाम ही तो ईश्वर हैं।

आस्तिकता के कारण अभयता, आत्मबल में वृद्धि, सत्य पथ का अनुगामी बनना, मृत्यु के भय से मुक्ति, परमानन्द सुख की प्राप्ति, आध्यात्मिक उन्नति, आत्मिक शांति की प्राप्ति, सदाचारी जीवन आदि गुण की आस्तिकता से प्राप्ति होती हैं एवं स्वार्थ, पापकर्म, अत्याचार, दुःख, राग, द्वेष, इर्ष्या, अहंकार आदि दुर्गुणों से मुक्ति मिलती है।  नास्तिक लोगों का मानना हैं की मनुष्य यह सब कार्य ईश्वर के भय  से करता हैं। भय मनुष्य का स्वाभाविक गुण हैं। निकृष्ट अवस्था में भय की वृद्धि होती हैं एवं उन्नतशील अवस्था में भय की न्यूनता होती हैं। उच्च व्यक्ति स्वभाव के प्रभाव से सत्य बोलते हैं जबकि निकृष्ट व्यक्ति दंड के भय से सच बोलते हैं। ईश्वर विश्वासी व्यक्ति हर स्थान पर, हर समय पाप कर्म करने से बचेगा क्यूंकि वह जानता हैं की ईश्वर बिना आँख के देखता हैं और बिना कान के सुनता हैं। जो ईश्वर से भय करता हैं वह वस्तुत: किसी से नहीं डरता और न ही नियमों को तोड़ता हैं। यथार्थ में यह भय नहीं अपितु अभयता हैं। ईश्वर हमें भय करना नहीं अपितु सचेत करना सिखाते हैं। स्वामी दयानंद जी का उदहारण हमारे समक्ष हैं जब उन्हें जोधपुर जाने से मना किया गया तो वह बोले की चाहे मेरी उँगलियों की बत्ती बनाकर जला दिया जाये मैं सत्य कहने से पीछे नहीं हटूंगा। यह ईश्वर विश्वास के कारण आस्तिक व्यक्ति में पैदा हुई अभयता हैं नाकि ईश्वर का भय हैं।

कभी कभी हमें यह शंका होती हैं की ईश्वर में विश्वास न रखने वाला नास्तिक व्यक्ति अधिक सुखी हैं और आस्तिक व्यक्ति अधिक दुखी हैं। यह वस्तुत हमारा भ्रम हैं क्यूंकि हम भौतिक पदार्थों को ज्यादा से ज्यादा एकत्र करने वाले व्यक्ति को सबसे बड़ा सुखी मान लेते हैं।   सत्य यह हैं की जीवन की मुलभुत सुविधाओं को ईमानदारी से एकत्र करने वाला व्यक्ति न केवल अधिक सुखी हैं अपितु अधिक संतुष्ट भी हैं जबकि चोरी, भ्रष्टाचार, धोखे आदि द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक सुविधाओं को एकत्र करने वाला व्यक्ति जीवन में कभी सुखी नहीं हो सकता।

ईश्वर विश्वासी व्यक्ति अत्याचारी नहीं होता। क्यूंकि नियमों का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति वीर नहीं अपितु निर्बल हैं क्यूंकि वह छोटे छोटे प्रलोभनों का सामना नहीं कर सकता। आस्तिक सभी प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखता हैं क्यूंकि निज स्वार्थ के लिए आस्तिक व्यक्ति किसी को दुःख नहीं देता हैं। ईश्वर विश्वास का सबसे बड़ा लाभ हैं की ईश्वर विश्वास मनुष्य को सत्य मार्ग पर दृढ़ होने के लिए बल देता हैं। ईश्वर विश्वासी मृत्यु से नहीं डरता क्यूंकि वह समझता हैं की मृत्यु के समय भी ईश्वर का करुणामय हाथ उसके ऊपर हैं। ईश्वर विश्वास मनुष्य को सत्य नियम पालन की प्रेरणा देते हैं जिससे परमानन्द की प्राप्ति होती हैं। ईश्वर विश्वास मनुष्य को यम-नियम का पालन करने की शक्ति देते हैं जिससे मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति होती हैं। ईश्वर विश्वास से सदाचार की प्रेरणा एवं उससे आत्मिक शांति प्राप्त होती हैं। ईश्वर विश्वास हमें यह अंतर बताता हैं की बाह्य विषय और सुख शरीर के जीवन यापन की पूर्ति के लिए हैं नाकि जीवन का उद्देश्य हैं। ऐसा नहीं हैं की ईश्वर विश्वासी व्यक्ति को कभी दुख का सामना नहीं करना पड़ता । दुःख होने के अनेक कारण हैं जैसे आध्यात्मिक,अधिभौतिक एवं आधिदैविक मगर ईश्वर में विश्वास से आस्तिकता से मनुष्य को अंतरात्मा में इतना बल मिलता हैं इतनी शक्ति मिलती हैं की पहाड़ के समान दुःख का भी वह आसानी से सामना कर लेता हैं। ईश्वर में आस्तिकता मनुष्य को जीवन का उद्देश्य सिखाती हैं क्यूंकि मनुष्य न जगत कर्ता बन सकता हैं, न कर्म फल दाता बन सकता हैं, न ही अनादि सच्चिदानन्द बन सकता हैं किन्तु सादी सच्चिदानन्द अवश्य बन सकता हैं और इसे ही मुक्ति कहते हैं, यही मनुष्य का अंतिम ध्येय हैं।

One thought on “मैं आस्तिक क्यों हूँ? (भाग – ५)

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने लेखमाला का समापन बहुत अच्छी तरह किया है. देखते हैं की स्वयं को नास्तिक कहने वाले लोग इसका क्या उत्तर देते हैं.

Comments are closed.