कहानी

कहानी : फिर नई सुबह हुई …

आज घर में दिन भर खाली बैठे- बैठे बोरियत मेहसूस होने लगी| तो सोचा सब्जी मण्डी जाकर सब्जी ले आऊँ| तैयार होकर बाहर आयी| आज गर्मी ज्यादा थी, तो मैंने कॉटन की प्रिंटेड हल्की साड़ी पहनी| गैरेज में से गाड़ी निकाली और चल दी|

सब्जी मंडी घर से थोड़ी दूर थी| मौसम बरसात का था, मैंने ऍफ़. एम. चालू किया, एन्जॉय करते हुए मैं वहाँ पहुंची| पार्किंग में  गाड़ी पार्क की और पहुँच गयी सब्जी वाले के पास| ‘भैया, सब तरह की सब्जी एक- एक किलो कर दो और हां, ताजा होनी चाहिए|’ अचानक मेरी नजर एक जोड़ी आँखों से टकराई, जो मुझे बड़ी शिद्दत से घूर रही थी| मैंने वहां से अपना ध्यान हटाकर सब्जी वाले को कहा, ‘सब सब्जिया अच्छे से पैक कर दी ना तुमने|’ उसने बैग देते हुए कहा ‘ हां मैडम सब कर दी ये लो बिल|’ मैंने उसे पैसे दिए और गाड़ी की तरफ चल दी| गाड़ी मे बैग रखकर मैं उस औरत के पास गयी, जो मुझे कब से घूर रही थी|

 ‘मैंने देखा, दुबला क्लान्त शरीर था उसका, उदास और धँसी हई आँखे, तन पर मैले-कुचेले वस्त्र थे| ऐसे लग रहा था, तेज हवा चले तो ये घिर जाएगी| ”क्या आप मुझे जानती है ?’ मैंने उसको पूछा| उसने मरियल सी थकी आवाज मे कहा, ‘मै तो आपको देखते ही पहचान गयी, मैडम ,पर लगता है आप ने नहीं पहचाना|’

मैंने अपने दिमाग पर जोर दिया, तभी उसने कहा, ” मै किरण हूँ, ‘आँगनबाड़ी’ मे काम करती थी| मेरा सेंटर आपके एरिया मे ही मे था|’ ‘ओह, हां, याद आया, किरण शर्मा, पर तुम्हारी ये दशा कैसे हुई?’ मैंने कहा|

‘बहुत लम्बी कहानी है| फिर किसी दिन, अभी आप लेट हो जाओगी|’

‘हां तुम सही कह रही हो, ये लो मेरा पता कल दोपहर मे मेरे घर आना फिर इत्मिनान से बात करते है|’ मैंने उसे अपना विजिटिंग कार्ड दिया और गाड़ी स्टार्ट की|

घर आकर बहु को एक कप चाय लाने को कहा और मै पलंग पर मसनद के सहारे लेट गयी| पता नहीं चला, कब आँख लग गयी| बहु ने उठाया नहीं| रात को दस बजे बेटा मुझे उठाने आया| हम सबने खाना खाया| सबने पूछा आज आप इतना चुप-चुप क्यों हो? ‘ कुछ नहीं थकान है,ये कह कर मै अपने कमरे मे चली आयी|

 ‘यादो की कडिया जुड़ने लगी| मै ”महिला बाल विकास” के पद पर कार्यरत थी| उस वक्त मेरा तबादला मेरे गृह नगर झालावाड से बांसवाडा हो गया था| मेरे पति रमाकान्त, बैक मे सहायक मैनेजर थे| मेरा एक बेटा जो मुंबई मे रह कर पढ़ रहा था| घर मे सास-ससुर और पति का साथ था, बांसवाडा ज्वाइन करती हूँ तो अकेले रहना पड़ेगा, ये सोच कर मन घबरा रहा था| ससुर जी मेरी मन की स्थति  को जान गये, कहा ‘ बहु फ़िक्र ना करो, मै चलूँगा तुम्हारे साथ, पर अचानक उनके घुटनों मे दर्द ज्यादा होने से वो नहीं चल सके, मुझे अकेले ही निकलना पड़ा|

‘बांसवाडा मे ज्वाइन किये एक माह हो रहा था| आज ‘आँगनबाड़ी कार्यकर्ता’ की मीटिंग मे जाना था| दोपहर को मीटिंग थी| करीब एक बजे एक आँगनबाड़ी कार्यकर्ता किरण मेरे ऑफिस आयी| थोड़ी ही देर मे उसके साथ बाते करके मुझे अच्छा लगा| मैंने उसे फिर आने का कहा,और हम दोनों मीटिंग के लिए निकल गयी| जब किसी के साथ आत्मीयता होती है तो मन उस आत्मीय को अपने आस-पास ही देखना चाहता है| किरण भी मेरे दिल की बात जान गयी| वो अक्सर मेरे पास आती रहती थी, शाम का खाना तो लगभग वो ही बनाती थी| किरण की निकटता के कारण मुझे अब अकेलापन नहीं लगता था|ये सब सोचते कब कब आँख लगी,पता ही नहीं चला| सुबह बहु की आवाज से आँख खुली|

डोर बेल बजी, दरवाजा खोला तो सामने किरण अपने उसी रूप मे मेरे सामने थी| ”आओ किरण”. हम बैठक कक्ष मे बैठ गये| बहु जल-पान रख कर चली गयी| मैंने चुप्पी  तोड़ते हुए कहा, ”किरण कहो क्या हुआ तुम्हारे साथ, मुझे याद है, एक बेटा था तुम्हारे. फिर भी तुम्हे ये काम करने की क्यों जरूरत पड़ी?’ किरण ने कहा ”हां था, मेरा बेटा विमल, पर किस्मत के आगे मै हार गयी मैडम, मेरे बेटे की शादी के तीन साल बाद ही, एक दुर्घटना मे मेरा बेटा और पति दोनों मुझे रोता-बिलखता हुए छोड़ कर चले गये|

बहु थोड़े समय तक तो मेरे साथ रही, फिर एक बार मायके गयी तो वापस वो नहीं, एक चिठ्ठी आयी कि ‘माँ अब मेरे आपके पास रहने की वजह तो नहीं रही तो मै अब से अपने मायके मे ही रहूंगी| बहु के ना आने से घर मुझे काटने लगा| नौकरी भी छोड़ चुकी थी| बहु का सहारा था वो भी नहीं रहा| मै हताश-निराश, मैंने अपने भाई के घर जाने का सोचा और एक दिन भाई के घर चली गयी| रात दिन मेरी फिक्र करने वाला भाई ने पूछा, ”कैसे आना हुआ? सब ठीक तो है ना?’ भाभी कमरे में से आयी, थोडा सा हंसने का नाटक किया और चाय बनाने रसोई मे चली गयी|

अभी एक सप्ताह ही बीता कि एक दिन मेरे कानो ने सुना, ” अब क्या आपकी बहन हमेशा के लिए रहने आई है, क्या ? उसे कल ही जाने को बोल दो. मुझे डर है कि इस करमजली के आने से हमारी हंसती-खेलती गृहस्थी तबाह ना हो जाये|” भाभी के मुह से निकले शब्द मेरे कानो मे पिघलते सीसे के समान थे| वो ‘कल जाने का कहते मै उससे पहले ही अपने घर चली आयी| इतना कह कर किरण रोने लगी, थोडा पानी पीने के बाद कहा जब कोई मेरा अपना ना रहा तो पेट पालने के लिए मैंने ये काम किया है|’

किरण की बाते सुनकर मेरी आँखे बहने लगी| मैंने उसको कहा ‘आज से तुम अकेली नहीं, मै तेरे साथ हूँ| तुम मेरे घर मेरे पास रहोगी|” मैंने उसे अपने कपड़े दिए और उसे नहाने के लिए कहा| किरण कपड़े बदल कर आयी और मेरे पैरो मे गिर कर कहने लगी, ‘आज भी इस दुनिया मे आप जैसे देवता लोग रहते है, जो अपने ऊपर किये गये थोड़े से अहसान का बदला इतने बड़े रूप मे चुकाता है| आज मेरे जीवन की फिर एक नई सुबह हुई है| आपको कोटि प्रणाम| दोनों गले मिलकर भाव विहल हो गयी.

शान्ति पुरोहित

निज आनंद के लिए लिखती हूँ जो भी शब्द गढ़ लेती हूँ कागज पर उतार कर आपके समक्ष रख देती हूँ

2 thoughts on “कहानी : फिर नई सुबह हुई …

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कहानी. मानवता भरी हुई.

    • शान्ति पुरोहित

      बहुत बहुत धन्यवाद, भाई जी.

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