……मुलाकात बाकी रह गयी।
है यहां बरसात फिर भी प्यास बाकी रह गयी।
देख ली दुनियां सारी, तलाश बाकी रह गयी।।
कुछ वफा मेरी थी उनपे, कुछ वफा उनकी थी मुझपे
वायदा जिस दिन किये थे, बात बाकी रह गयी।।
हर घड़ी हम साथ रहते, डरते जुदाई से रहे
फिर भी लगता है मुझे, मुलाकात बाकी रह गयी।
एक मुददत हो गयी, नींद आंखों में नहीं
दूर है अपना सबेरा, रात बाकी रह गयी।
फूल हैं कितने यहां, ‘राज’ कैसे देख ले
पहला और अन्त वही, याद बाकी रह गयी।
राजकुमार तिवारी (राज)
वाह ! वाह ! बेहद खूबसूरत ग़ज़ल.
“हर घड़ी हम साथ रहते, डरते जुदाई से रहे,
फिर भी लगता है मुझको, मुलाकात बाकी रह गयी।”
इन पंक्तियों ने मन मोह लिया.
राज कुमार जी कविता बहुत अच्छी लगी .है यहाँ बरसात फिर भी पिआस बाकी रह गई , देख ली दुनीआं सारी तलाश बाकी रह गई .वाह वाह वाह , किया बात है .