कविता

लिखना चाहता हूँ कविता

लिखना चाहता हूँ कविता

तलाश रहा हूँ शीर्षक,

जो समेट लें संवेदनाएं

भावनाओं को कर सकें परिकल्पित,

पात्र तो कई हैं मेरे पास

मूक, शाश्वत, जीवन्त..

हर्षित, विस्मित, उदास,

किसको बनाऊं नायक,

किसका करूँ उपहास…

हर पात्र की अपनी कोई व्यथा है

यही तो सामाजिक प्रथा है

किसका लिखूं इतिहास…

क्योँ न उन अट्टालिकाओं का

जो हैं स्तर की पहचान

जहाँ से मात्र चीटीं दिखता इन्सान,

जहाँ बैठ कर लघुमानव की

विशाल समस्याओं पर होता है चिंतन

विचार – विमर्श…

हर बार निकलता है शून्य सा निष्कर्ष

जिन्हें मानने को बाध्य है मनु…

क्योंकि कल वह भी करेगा निर्णय

क्योँकि वह है संगठन का पछधर

संगठन जिसे वह कहता है

“सभ्य समाज”

जहाँ सब कर्तव्य, नियम

हैं मात्र सभ्यों के लिए

जिनको मान कर ही बना जा सकता है सभ्य

जहाँ सभ्यता के हैं मात्र दो मापदंड..

विकसित और विकासशील

एक जिसके पास है

अर्थ, शस्त्र, युधोंमाद,

वह सबसे मनवाता कि

वह है सभ्य…

दूसरा…सभ्यों के पदचिन्हों पर चलने को तत्पर

निश्चय कभी तो वह भी…

पा ही लेगा..अर्थ, शस्त्र, युधोंन्माद, रक्तपिपासा…

पर तब तक शायद सभ्य बदल दें.. सभ्य शब्द की परिभाषा |

पर तब तक शायद सभ्य बदल दें.. सभ्य शब्द की परिभाषा ||

 

____________________________अभिवृत

 

One thought on “लिखना चाहता हूँ कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता. अच्छी भाव अभिव्यक्ति.

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