कविता

*** “दरिंदगी” ***

मौन की भाषा भी नहीं समझतें
अब लोग!!
मासूमियत भी आँखों में नहीं देखते
अब लोग !!
बेजुबानों का भी कर देते हैं बलात्कार
उनकी इज्जत कर देते हैं तार-तार
चाहे कोई बच्ची हो या फिर नार !!

मासूम निगाहों में झाँकते तो दिखती
बोल नहीं पाई तो क्या, चीखी तो होगी
न मूक भाषा समझी, न चीख ही सुनी
इंसानियत एक बार फिर शर्मसार हुई

रोने-गिड़गिड़ाने को कौन सुनने वाला
कानों पर बंधी है बहशीपन की पट्टी
सीमाएं लाँघ पहुँच गए ऐसे लोक
जहाँ एक दूसरे की कोई कद्र नहीं
न बच्ची के प्रति दया हैं
न नारी के प्रति कोई सम्मान!!

क्या कहें ! बहशियों के लिए, वे तो अंधे हैं
कैसे बचाए अपनी फूल सी बच्चियों को
सोचतें समझतें हमें देर लग गयी, एक और
बहशियो की दूषित मानसिकता की भेंट चढ़ गयी

हे प्रभु, इस भरी दुनिया में तू ही बस अपना था
पर अब तू भी इन आदमखोरों से मिल गया हैं
हर रोज कैसे ऐसे मासूमों की बलि दे रहा हैं
किसे खुश करने में लगा हैं
यह मानव कभी भी नहीं होगा खुश
थोड़ा होश में होगा तो
सारा का सारा दोष तुझ पर ही मढ़ देंगा!!

तिलांजली दे ऐसे मानवों की
नहीं चाहिए हमें भीड़ मानव रुपी भेड़ियों की
तू कुछ कर अब अंधेर न होने दे
सुन प्रभु अब तो बस प्रलय ला दे
विनाश कर सभी अत्याचारियों का
ख़त्म हो ये सारे पापी
सौ-हजार पूण्य आत्माओं की
बलि अगर लेनी पड़े तो लें
पर अब तो अंधेर हो गयी हैं प्रभु!!

मासूम फूल को यूँ मसलता नहीं देख सकतें हम
तू जब तक सबक नहीं सिखाएगा
कलियों को मसलने से तू बचा
पापियों को जल्द ही सबक सिखा
जब तू ऐसे को सबक सिखाएगा
व्यक्ति पाप करने से थरथरायेगा!!

फालतू ही अपने बचाव में
कम कपड़ों का रोना न रोएंगे !!

बस प्रभु, जल्दी कर तू
अपने जमाने के समय पर मत चलना
वर्ना बहुत देर हो जाएगी
वैसे अभी भी क्या कम देर हुई
बस तू अब अँधेर न होने दे | …सविता

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

4 thoughts on “*** “दरिंदगी” ***

  • सविता मिश्रा

    नीलेश गुप्ता भाई शुक्रिया आपका

  • सविता मिश्रा

    बहुत बहुत शुक्रिया आप का दिल से विजय भैया .सादर नमस्ते

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता, बहिन जी. पर बलात्कारियों का सबक कौन सिखाएगा? कानून बहुत लचर है. भगवान् भरोसे रहना भी ठीक नहीं. यह काम खुद समाज को करना होगा.

  • नीलेश गुप्ता

    रेप करने वालों को सबक सिखाने कि जरुरत है. यह काम भगवान् नहीं करेगा हमको ही करना पड़ेगा. कविता ठीक है.

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