उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (तेरहवीं कड़ी)

राजसूय यज्ञ के बाद की घटनाओं को याद करके कृष्ण का मन फिर खिन्न हो गया। इस यज्ञ के बाद वे एक प्रकार से पांडवों की ओर से निश्चिन्त हो गये थे, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि पांडवों की दिग्विजय और राजसूय यज्ञ के बाद दुर्योधन उनके प्रति पहले की तरह दुष्टतापूर्ण व्यवहार नहीं करेगा और उनको शान्ति से रहने देगा। लेकिन कृष्ण की यह आशा विफल रही।

राजसूय यज्ञ के समय युधिष्ठिर का ऐश्वर्य देखकर दुर्योधन ईर्ष्या की आग में जल रहा था। उसने खांडव वन जैसा घनघोर जंगल का क्षेत्र पांडवों को दिलवाया था। उसने सोचा था कि पांडव वहाँ कोई नगर नहीं बसा सकेंगे और जंगली पशुओं का आहार बन जायेंगे। लेकिन पांडवों ने अपने पराक्रम और श्रीकृष्ण की सहायता से इन्द्रप्रस्थ जैसा सुन्दर और विशाल नगर उसी जंगल में बना दिया और अब वह समृद्धि में हस्तिनापुर से बहुत बड़ा हो गया था। इसके अतिरिक्त, राजसूय यज्ञ करके युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण आर्यावर्त में अपनी निर्विवाद श्रेष्ठता सिद्ध कर दी थी और एक प्रकार से हस्तिनापुर को महत्वहीन कर दिया था। यही दुर्योधन की ईर्ष्या का प्रमुख कारण था। शकुनि उसको लगातार भड़काता रहता था और कर्ण भी उसकी हां में हां मिलाता रहता था।

ईर्ष्या की आग में जलते हुए दुर्योधन और उसके भाई किसी भी तरह पांडवों को नीचा दिखाना चाहते थे। वे स्वयं तो राजसूय यज्ञ या दिग्विजय कर नहीं सकते थे, क्योंकि बातें वे कितनी भी बड़ी-बड़ी कर लें, परन्तु लम्बे युद्ध करना उनकी शक्ति से बाहर की बात थी। वे युद्ध में भी पांडवों को पराजित कर नहीं सकते थे और अकारण युद्ध करने की अनुमति भी पितामह भीष्म उनको नहीं दे सकते थे। इसलिए वे किसी अन्य प्रकार से पांडवों को नीचा दिखाना चाहते थे।

गांधार राज शकुनि पासे के खेल में बहुत चतुर था। उसे पता था कि युधिष्ठिर भी पासे के खेल में रुचि रखते हैं। उसने दुर्योधन को यह सलाह दी कि युधिष्ठिर को पासे का द्यूत खेलने के लिए आमंत्रित करो। मैं उसे इस खेल में हराकर उसका सर्वस्व जीत लूँगा। वे जानते थे कि युधिष्ठिर उनके निमंत्रण पर खेलने के लिए नहीं आयेंगे। इसलिए उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र से आदेश दिलवा दिया कि खेलने के लिए आओ। उनको ज्ञात था कि युधिष्ठिर अंधे महाराज धृतराष्ट्र का बहुत सम्मान करते हैं, इसलिए वे उनके किसी आदेश का उल्लंघन नहीं करेंगे। उन्होंने इस बात का पूरा लाभ उठाया और धृतराष्ट्र से वैसा ही आदेश करा दिया। अंधे राजा ने एक बार फिर पुत्र-मोह में फँसकर मूर्खतापूर्ण आदेश दे दिया और अपने वंश के सर्वनाश का बीज बो दिया।

कृष्ण ने युधिष्ठिर के इस कार्य पर कई बार विचार किया था और हर बार इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का यह आदेश स्वीकार नहीं करना चाहिए था। बड़ों का सम्मान करना अपने आप में अच्छा है, परन्तु उनके अनुचित आदेशों को मानना आवश्यक नहीं है। उनके केवल उचित आदेशों और इच्छाओं का ही पालन करना चाहिए। यह आदेश किसी अच्छे कार्य के लिए होता, तो अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन द्यूत जैसे व्यसन के लिए पहले तो धृतराष्ट्र को आदेश देना ही नहीं चाहिए था और यदि उन्होंने दिया भी था तो युधिष्ठिर को यह आदेश किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करना चाहिए था। अगर यह गर्हित खेल न हुआ होता, तो कदाचित् आगे की वे घटनायें न हुई होतीं, जिन्होंने सदा के लिए सम्पूर्ण कुरुवंश को कलंकित कर दिया।

कृष्ण उस समय द्वारिका में थे और उनको लेशमात्र भी आशंका नहीं थी कि दुर्योधन और शकुनि युधिष्ठिर को द्यूतक्रीड़ा के षड्यंत्र में फँसाकर उनका सर्वस्व हरण कर लेंगे। यदि कृष्ण को इसकी भनक भी लग जाती, तो वे किसी भी तरह युधिष्ठिर को यह खेल न खेलने देते, भले ही उनको बल प्रयोग करना पड़ता। इस प्रकार कुरुवंश उन कलंकित घटनाओं से बच जाता, जिनके कारण अन्ततः उनका और पूरे देश का विनाश हुआ।

कृष्ण को बाद में ज्ञात हुआ था कि द्यूतक्रीड़ा में दुर्योधन ने प्रारम्भ में ही अपनी ओर से शकुनि को खिलाने की सूचना दी थी। यह भी युधिष्ठिर को तत्काल अस्वीकार कर देना चाहिए था, क्योंकि वे दुर्योधन के साथ खेलने आये थे, शकुनि के बुलावे पर नहीं। युधिष्ठिर जानते थे कि शकुनि इस खेल में पारंगत है और वह सरलता से उनको हरा देगा, फिर भी कहना कठिन है कि क्या सोचकर उन्होंने खेलना स्वीकार किया। लगता है कि वे इस बात के लिए कृतसंकल्प होकर आये थे कि चाहे कुछ भी हो जाये, महाराज धृतराष्ट्र के आदेश का पालन अवश्य होगा।

कृष्ण का विचार था कि जब युधिष्ठिर द्यूत में अपना सब कुछ हार गये, सारा साम्राज्य भी हार गये, तो उनको खेल वहीं समाप्त कर देना चाहिए था और उठकर वन की राह पकड़ लेनी चाहिए थी। महामंत्री विदुर ने उनको यह राय दी भी थी, लेकिन युधिष्ठिर ने उस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया और शकुनि के उकसावे पर अपने भाइयों को, स्वयं को और अन्ततः द्रोपदी को भी हार गये। इसके बाद बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, वीरों और विद्वानों से भरी हुई उस राजसभा में जो हुआ, उसने सदा के लिए इतिहास को कलंकित कर दिया।

उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन भरी राजसभा में कर्ण के सुझाव पर और दुर्योधन के आदेश पर दुःशासन ने द्रोपदी के वस्त्र उतारकर उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश की। उस समय सभा में महाराज धृतराष्ट्र के अतिरिक्त पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, गुरु कृपाचार्य, महामंत्री विदुर सहित अनेक वरिष्ठ और सम्मानित जन उपस्थित थे, लेकिन वे केवल शाब्दिक विरोध प्रकट करने और दाँत पीसने के अतिरिक्त कुछ न कर सके। द्रोपदी ने नाम ले-लेकर सबको ललकारा और अपना सम्मान बचाने की प्रार्थना की, लेकिन सब अपने कानों में रुई लगाकर और आँखें बन्द करके बैठ गये।

कृष्ण को सबसे अधिक आश्चर्य पितामह भीष्म के व्यवहार पर हुआ था। वे सबसे वरिष्ठ थे और सबसे अधिक बलवान भी। उनकी कुलवधू और महाराज द्रुपद की पुत्री को भरी सभा में निर्वस्त्र किया जा रहा था, जो उनके लिए घोर अपमानजनक था। परन्तु उन्होंने इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। यदि वे एक बार भी जोर से दुर्योधन को डाँट देते और द्रोपदी को मुक्त कर देने का आदेश देते, तो दुर्योधन का साहस उनके आदेश का उल्लंघन करने का न होता। लेकिन वे केवल अपना रोष प्रकट करके नपुंसकों और निर्बलों की तरह बैठे रह गये। क्या दुर्योधन का अन्न खाकर उनकी बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो चुकी थी? यदि यह कार्य दुर्योधन के बजाय किसी बाहरी व्यक्ति ने किया होता या ऐसा करने की बात भी की होती, तो क्या तब भी भीष्म इसी तरह बैठे रहते या पहले ही बाण से उसका मस्तक उड़ा देते?

द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने भी एक-एक बार उठकर इस कृत्य का विरोध किया भी था, परन्तु दुर्योधन ने उनको यह कहकर चुप करा दिया कि वे कुरुवंश का अन्न खाने वाले हैं, उनकी स्थिति वेतनप्राप्त सेवक से अधिक नहीं है, इसलिए उनको बोलने का कोई अधिकार नहीं है। तब वे अपनी स्थिति देखकर चुप होकर बैठ गये।

महामंत्री विदुर ने अवश्य कई बार इसका खुला विरोध किया और दुर्योधन और उसके साथियों को अनेक प्रकार से समझाया, डराया और डाँटा भी, परन्तु उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं हुआ। महामंत्री विदुर ने महाराज धृतराष्ट्र को भी कई बार कहा कि महाराज इसे रोकिये, यह आपके पूरे वंश का विनाश करा देगा। परन्तु अंधे महाराज की बाहर की ही नहीं भीतर की आँखें भी फूटी हुई थीं। वे बुद्धिहीन और विवेकहीन महाराज एक निर्जीव पत्थर की तरह बैठे रहे। वे किसी को कुछ भी करने से नहीं रोक सके और दुर्योधन मनमानी करता रहा।

दुर्योधन के भाइयों में से केवल विकर्ण ने इस कृत्य का खुला विरोध किया, लेकिन उसका कथन शोर में दब गया और उसे दुर्योधन ने डाँटकर चुप करा दिया।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

One thought on “उपन्यास : शान्तिदूत (तेरहवीं कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई, धीरे धीरे सभी एपिसोड पड़ रहा हूँ , मेरे लिए बहुत उपयोगी है किओंकि नावल के माध्यम से ज़िआदा मज़ा आता है .

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