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मनोकामनाए पूर्ण करता कांवड?

सावन का महिना है और इस समय कांवड़ यात्रा जोरो पर है , लाखो कांवड लेने वाले शिवभक्त हरिद्वार से पैदल गंगा जल लेके अपने अपने क्षेत्र के शिव मंदिरों में जलाभिषेक करेंगे।
कांवड के दौरान क्या उत्पात मचता है और किस तरह से आम लोगो का जन जीवन अस्तव्यस्त होता है यह किसी से छुपा नहीं , हफ्तों रोड जाम रहते हैं ,पेट्रोल पंप बंद रहते हैं जिससे कई तरह की परेशानिया आम लोगो को भुगतनी पड़ती है ।
कई बार ऐसी खबरे सुनने को मिलती है की किसी कांवड लाने वाले की जेब कट गई, कोई घायल हो गया, अभी कल खबर आई थी की कई कांवड लाने वाले मर भी गए ।

एक व्यक्ति को मैं जनता हूँ जो कर्ज लेके कांवड लेने गया है ,उससे मैंने पूछा की कांवड लेने क्यों जा रहे हो तो उसने उत्तर दिया की इससे मन की मुराद पूरी होती है।
उसकी बात सुन के मैं सोचने लगा की क्या कंधे पर कांवड रख के पैदल जाने से सचमुच कोई फायदा होता है? अधिकतर लोग दुसरो को देखा देखी ऐसा इसलिए करते हैं की जब इतने लोग तीर्थ यात्रा कर रहे हैं तो हम क्यों पीछे रहे? ऐसे अन्धविश्वास में अधिकतर वह लोग फंसते हैं जो अनपढ़ और गरीब होते हैं । हलाकि बहुत से अमीर और शिक्षित लोग भी ऐसी बेवकूफी कर देते हैं पर उनकी संख्या कम ही होती है।

सबसे पहले यह सोचना चाहिए की हम पैदल चल कर कांवड ला के मूर्ती पर चढाते क्यों हैं? इसलिए की हमें कुछ चाहिए होता है ? तो इस पर जरा स्थिर मन से विचार करे की क्या देवी देवताओ से मांगने पर हमें कुछ मिल जाता है जिसकी मनोकामना हमारे मन में होती है? क्या उसके लिए हमें मेहनत नहीं करनी पड़ती है? यदि शक्तिशाली देवी देवताओं से मांगने के बाद भी हमें मेहनत करनी पड़े तो पैदल चल के कष्ट उठा के कांवड लाने से क्या फायदा?
क्या देवी देवताओ में इतनी शक्ति नहीं की वह हमारी मनोकामनाए बिना कुछ किये पूरी कर दें?
यदि बिना मेहनत के कुछ नहीं हासिल होता तो बेकार में समय और पैसे की बर्बादी क्यों?

संजय कुमार (केशव)

नास्तिक .... क्या यह परिचय काफी नहीं है?

7 thoughts on “मनोकामनाए पूर्ण करता कांवड?

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    केशव जी , आप का लेख बहुत ही अच्छा है , जो आप ने लिखा है कि यह अंधविश्वास सभ उचित है ? इतना खर्च करके किया मिलता है ? ज़ाहिर है इस के पक्ष विपक्ष में लोग होंगे . लेकिन मैं एक उदहारण अपने दोस्त की जो यहाँ है देता हूँ . उस को पार्किन्सन की बीमारी है जो बहुत आगे जा चुकी है लेकिन उस की वाकिफ उस को इतना मानसिक दुःख देती है कि वोह उस वक्त हम को टेलीफून करता है जब वोह घर नहीं होती . दुसरी तरफ उस की वाइफ तीरथ यात्रा पर अक्सर जाती रहती है और साधुओं संतों पर धन वय करती है . वोह विचारा रोता है कि उस की किस्मत बुरी है लेकिन उस की वाइफ यह सभ समझती नहीं है . और मेरा दोस्त इतना अच्छा है कि सारी उमर खाना भी पकाता रहा , वाइफ की मदद करता रहा . अब कोई मुझे बताए कि यात्रा जरुरी है या उस का हसबैंड ?

    • विजय कुमार सिंघल

      भाई साहब, यह आपने एक उदाहरण दिया है. इसमें यात्रा की कोई गलती नहीं, उसकी पत्नी के अन्धविश्वास की है. पत्नी का सबसे बड़ा धर्म पति की सेवा करना होता है. उसको भूल कर तथाकथित तीर्थों में जाना मूर्खता है.

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बहुत ऐसी ऐसी कहानी जुडी है कि सुनने के बाद कांवर-यात्रा पर विश्वास होने लगता है …. हिन्द देश मिट्टी के ढेले में भी भगवान दिखलाई पड़ते हैं …. बस अपनी अपनी श्रद्धा की बात है ….. वैसे पक्ष विपक्ष सब चीज के होते हैं ….

    • विजय कुमार सिंघल

      मैं आपसे सहमत हूँ, विभा जी.

  • जगदीश सोनकर

    भले ही कांवड़ से किसी की इच्छा पूरी न होती हो, लेकिन उसकी आस्था का अपमान करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है.

  • विजय कुमार सिंघल

    केशव जी, आपने जो लिखा है वह अपनी जगह पूरी तरह सही है. कांवड़ ले जाने से मनोकामनाएं पूर्ण होने जैसी बात शुद्ध अन्धविश्वास ही है. आपका यह कहना भी सत्य है कि बहुत से लोग दूसरों की देखा-देखी कांवड़ ले जाते हैं. इनके कारण होने वाले खर्चों और कष्टों की बात भी अपनी जगह सही है.
    लेकिन केवल इसी कारण से इनका विरोध करना उचित नहीं है. बहुत सी परम्पराएँ (सही या गलत) बन जाती हैं, उनका रूप भी विकृत हो जाता है, फिर भी उनका पालन किया जाता है. जैसे मुसलमानों में कब्र पूजा की परंपरा है, सिखों में ग्रन्थ साहब को पंखा झलने की परंपरा है, जैनियों और बौद्धों में मूर्ति पूजा की परंपरा है, जो सनातनियों ने भी अपना ली है. खर्च और कष्ट तो साधारण भ्रमणों में भी होते हैं, दुर्घटनाएं भी होती हैं, क्या इसी कारण पर्यटन को बंद कर दिया जाना चाहिए? यह सवाल मैंने ‘सरिता’ पत्रिका के संपादक से कई बार पूछा था, जो तीर्थ यात्राओं का विरोध करते हैं, पर आज तक इसका उत्तर नहीं मिला.
    इस परंपरा का एक पहलू और है. लोग हजारों कष्ट सहकर पैदल यात्रा करते हैं और अपना संकल्प पूरा करते हैं, क्या उनकी इस श्रृद्धा को नमन नहीं किया जाना चाहिए? भले ही उनकी मान्यताएं काल्पनिक या झूठी हों, लेकिन उनकी श्रृद्धा सच्ची और वास्तविक होती है. हमें इसका आदर करना चाहिए.

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