उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (बीसवीं कड़ी)

अब कृष्ण कौरवों के आक्रमण और उसके बाद की घटनाओं पर विचार करने लगे। ये घटनायें अधिक पुरानी भी नहीं थीं। इसलिए कृष्ण को विस्तार से सब बताया गया था।

जब राजा विराट को कौरवों के आक्रमण का समाचार मिला, तो उनके हाथ-पैर फूल गये। वे अपनी शक्ति को जानते थे, कौरवों की विशाल सेना और भीष्म, द्रोण, कर्ण जैसे वीरों के सामने उनकी सेना का क्या महत्व था? लेकिन आक्रमण होने पर उन्होंने कायरता नहीं दिखायी और अपने पुत्र राजकुमार उत्तर को अपनी सेना के साथ कौरवों का सामना करने के लिए भेजने का निश्चय किया।

कंक के रूप में वहाँ उपस्थित सम्राट युधिष्ठिर को कौरवों के आक्रमण का समाचार ज्ञात हुआ, तो समझ गये कि कौरवों को उनके यहाँ पर होने की भनक लग गयी है, इसलिए उनको प्रकट कराने के लिए यह आक्रमण किया गया है। वे जानते हैं कि यदि पांडव विराट नगर में रह रहे होंगे, तो अपने शरण दाता राज्य को अरक्षित नहीं छोड़ सकते और उनके पक्ष में लड़ने के लिए अवश्य आयेंगे। इससे उनको पहचान लिया जाएगा।

तब युधिष्ठिर ने गणना की तो उनको निश्चय हो गया कि उनके अज्ञातवास का भी एक वर्ष पूरा हो चुका है और अब उनके प्रकट होने में कोई बाधा नहीं है। यह विचार करके उन्होंने राजा विराट को सलाह दी कि वृहन्नला एक गंधर्व है, लेकिन वह अच्छा सारथी भी है। उसे राजकुमार विराट का सारथी बनाकर युद्ध में भेज दीजिए। इस विचित्र सलाह पर राजा विराट को आश्चर्य हुआ, लेकिन उन्होंने वृहन्नला को सारथी बनाकर भेजना स्वीकार कर लिया, क्योंकि वे कंक की सलाह का बहुत आदर करते थे। पहले भी कई अवसरों पर कंक ने उनको बहुत हितकारी सलाह दी थी।

राजकुमार उत्तर वृहन्नला को सारथी बनाकर अपनी छोटी सी सेना के साथ कौरवों का सामना करने गये। वहां वे कौरवों की विशाल सेना और भीष्म जैसे वीरों को सामने खड़े देकर भयभीत हो गये और अपने रथ से उतरकर भागने का प्रयास करने लगे। लेकिन वृहन्नला ने उनको पकड़ लिया और फिर अपना वास्तविक परिचय देते हुए बताया कि मैं अर्जुन हूँ। यह नाम सुनते ही उत्तर को बहुत आश्चर्य हुआ। अर्जुन रथ को उस पेड़ के पास ले गये, जहां उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र छिपा रखे थे। ऊपर चढ़कर दोनों ने उनका गट्ठर उतारा और उसमें से अर्जुन ने अपना धनुष गांडीव और शंख देवदत्त ले लिया। शेष को रथ में ही रख दिया।

फिर वे दोनों वापस युद्ध भूमि में आये। अब उत्तर रथ को हाँक रहा था और अर्जुन युद्ध करने जा रहे थे। सबसे पहले उन्होंने अपना देवदत्त नामक शंख खूब जोर से फूंका। जैसे ही उन्होंने अपना शंख बजाया, तो कौरवों ने उस शंख की आवाज पहचान ली और वे समझ गये कि यह तो अर्जुन है। इस पर कौरव सैनिकों में कानाफूंसी होने लगी कि उसका अज्ञातवास पूरा हो गया है या नहीं। तब पितामह भीष्म ने गणना करके बताया कि पांडवों के वनवास और अज्ञातवास की अवधि सौर वर्ष और चन्द्र वर्ष दोनों पंचाग परम्पराओं के अनुसार पूरी हो चुकी है।

अर्जुन ने इस युद्ध में अकेले ही पूरी कौरव सेना का सामना किया। जब सूर्यास्त होने को आया, तो अर्जुन ने एक विशेष अस्त्र छोड़कर पूरी कौरव सेना को चेतनाहीन कर दिया। फिर अर्जुन और उत्तर दोनों जाकर संकेत के रूप में सभी प्रमुख कौरव वीरों के उत्तरीय अंगवस्त्र उतार लाये।

जब कौरव वीरों की चेतना लौटी, तो उनको अपने आप पर बहुत ग्लानि हुई कि एक अकेला वीर अर्जुन उनको निर्वस्त्र कर गया। निराशा में भरकर वे लौट आये।

जब राजा विराट को कौरवों की पराजय का समाचार मिला, तो उनको बहुत हर्ष हुआ कि उनके पुत्र उत्तर ने सभी कौरव महावीरों को पराजित कर दिया। लेकिन कंक बने हुए युधिष्ठिर ने कहा कि यह विजय वृहन्नला के कारण मिली है। इस पर राजा विराट क्रोधित हुए। वे विजयी राजकुमार उत्तर का स्वागत करने महल से बाहर आये। वहाँ उत्तर ने उनको बताया कि यह विजय वास्तव में अर्जुन के कारण हुई है, जो वृहन्नला के रूप में हमारे यहां रह रहे थे। उन्होंने यह भी बताया कि आपके साथ कंक के रूप में जो द्यूत के साथी हैं, वे वास्तव में सम्राट युधिष्ठिर हैं, जो अज्ञातवास के दिन बिताने के लिए इस रूप में रह रहे थे। उसने द्रोपदी तथा अन्य पांडवों का भी वास्तविक परिचय दिया।

पांडवों का यथार्थ परिचय जानकर राजा विराट को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने दुर्व्यवहार के लिए युधिष्ठिर से क्षमा मांगी। युधिष्ठिर ने कहा कि राजन आपने कोई दुर्व्यवहार नहीं किया है। हम तो आपके आभारी हैं कि आपने हमें शरण देकर हमारा अज्ञातवास सफल बनाया। हम आपके ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकते।

राजा विराट ने सभी पांडवों का बहुत सम्मान किया और आपसी सम्बंध को स्थायी करने के लिए अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन से करने की इच्छा व्यक्त की। इस पर अर्जुन ने कहा कि उत्तरा हमारी शिष्या है, इसलिए हमारी पुत्री के समान है। मैं उससे विवाह नहीं कर सकता, लेकिन मेरे पुत्र अभिमन्यु से उसका विवाह हो सकता है। इस प्रस्ताव को राजा विराट ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

तत्काल दूत को द्वारिका भेजकर भगवान कृष्ण, सुभद्रा, अभिमन्यु और अन्य परिजनों को विराट नगर बुलाया गया। पांचाल से भी महाराज द्रुपद अपने परिवार और द्रोपदी के सभी पुत्रों सहित पधारे। उन सबकी उपस्थिति में अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह कर दिया गया। 13 वर्ष की दीर्घ अवधि में पांडवों के सभी पुत्र वयस्क हो गये थे। उनको युद्धकला की उचित शिक्षा भी दी गयी थी, जिससे वे सभी महारथी बन गये थे।

यह मांगलिक कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद सभी इस बात पर विचार करने लगे कि अब पांडवों को उनका इन्द्रप्रस्थ का राज्य पुनः दिलवाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। इस पर विस्तार से विचार करने के लिए राजसभा के आयोजन का निश्चय किया गया और उसके लिए समय और स्थान निश्चित कर दिया गया।

(जारी…)

— डॉ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (बीसवीं कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , उप्निआस के रूप में महांभारत की कथा जो आप बिआन कर रहे हैं बहुत दिलचस्प है . आगे इंतज़ार रहेगा . धन्यवाद .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब. इसकी कड़ियाँ लिखने के लिए मुझे बहुत समय निकालना पड़ता है. कई काम छोड़ने पड़ते हैं. पर आपके प्रोत्साहन से किसी तरह लिख लेता हूँ. आगे भी लिखता रहूँगा.

  • विजय कुमार सिंघल

    धन्यवाद बहिन जी।

  • शान्ति पुरोहित

    विजय भाई, आपके उपन्यास की यह कड़ी भी रोचक रही। अगली कड़ियों का इंतज़ार है।

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