उपन्यास अंश

उपन्यास : उम्र (सातवीं कड़ी)

शहर पहुंचकर चौक पर बस रुकी रमेश थैला लेकर, और बैग लटकाए बस से नीचे उतरा, रमेश ने उतरते ही लम्बी सांस ली जैसे उसे बड़ा चैन मिला हो रमण काका की दुकान के सामने ही आकर बस रूकती थी, रमेश ने रमण काका की तरफ देखा और मुस्कराया, जवाब में जैसे रमण काका भी मुस्कराए और अपने काम में लग गए, लगभग ४ या ५ बजे के करीब समय हो रहा था और रमेश अपने घर पहुंचा, आते ही उसने सामने का गेट खोला फिर अन्दर आया, गेट लगाया दरवाजा अन्दर से बंद था, शायद घर में माँ और गुडिया ही थे! उसने दरवाजा खटखटाया और गुडिया दौड़ते हुए आयी और दरवाजा खोलते हुए मुस्करायी, रमेश के हाथ से सब्जियों का थैला लिया और अन्दर रख आई, रमेश ने माँ की तरफ देखा उस समय वो कुर्सी में बैठी शायद कुछ सिल रही थी, गुडिया टीवी देख रही थी, सोफे पर रमेश ने बैग उतारा और जूते उतारने के लिए एक कुर्सी खींचकर उसमे बैठा, और जूते उतारने लगा, माँ ने जैसे एकदम से पूछा, ’मिल आया मामाजी से अपने?’, और मुस्करा दी ,रमेश ने मुस्कराते हुए ही कहा ‘हाँ मम्मी…’!
रमेश जूते मोज़े उतार कर निढाल सा हो सोफे पर ही बैठ गया, तब माँ उठी और उन्होंने रमेश के लिए एक गिलास पानी लाया, बाजू में ही बैठी गुडिया टीवी देख रही थी, वो टीवी बंद करती हुयी बोली, ’भैया मेरे लिए क्या लाया?’, रमेश जैसे चौंककर उठा और बोला, ’अरे गाँव गया था पगली…दुनिया घूमने नहीं गया था…’ और रमेश हंस दिया…’गुडिया भी इस बात पर हंस दी और उठकर फिर अपने कमरे में चलाई गयी… कुछ देर इसी तरह पड़े पड़े रमेश को मानो नींद सी आ रही थी, शाम का समय हो चला था, दरवाजे पर पिताजी ने दस्तक दी और रमेश को देख मुस्कराकर बोले अरे आ गए बेटा…,यकायक रमेश सुधरकर बैठा और बोला, ‘हाँ हाँ पापा,,,,’ और मेरी दवाई ले आये?, पिताजी ने जिज्ञासा से पूछा ,’हाँ पापा ले आया,’रमेश ने उत्तर दिया ! फिर बैग खोलकर रमेश ने दवाइयां पिताजी को पकड़ा दी और फिर अन्दर चला गया, पिताजी कुर्सी में बैठे चश्मा लगाये दवाइयों की चिट्ठी में पढने लगे!
रमेश ने मुंह हाथ धोकर थोड़ी देर आराम करने की सोची थी लेकिन शाम का समय था और माँ इतने बजे सोने से सख्त मना करती थी, वो मुंह हाथ धोकर आया और अपने ही कमरे में बिस्तर पर बैठ गया कुछ देर मोबाइल पर कुछ खोजबीन करता रहा फिर उसे याद आया कि जाते वक़्त उसे आकाश का फोन आया था हरीश भैया और जया भाभी के आने की खबर आकाश ने उसे दी थी, वो कुछ सोच ही रहा था कि चाय का ट्रे लेती हुयी गुडिया उसके कमरे में आयी उसे देखकर रमेश मुस्कराया और गुडिया से बोला, ’अच्छा हुआ चाय ले आई, अब कम से कम नींद दूर भाग जायेगी!’, गुडिया मुस्करायी और चाय उसने टेबल पर रख दी, और कमरे से चली गयी अन्दर रमेश कुर्सी से उठकर टेबल के सामने रखी कुर्सी पर बैठा, और चाय की चुस्कियां लेने लगा उसकी किताबें टेबल पर ज्यों की त्यों कहीं अधखुली या उनके बीच में पेन अटका हुआ ऐसी ही पड़ी थीं, रमेश उन किताबो को चाय का कप रखकर ठीक करने लगा, उन किताबों में अपार ज्ञान था, इतना कि रमेश को लगता था कि उसके हर सपने को ये किताबें ही सच कर सकती हैं, उन किताबो में पड़ा पेन हूँ या, उसकी डायरियों में गुदे कुछ शब्द ही हों उसे उसके जीवन में हमेशा पढ़ते रहने और इन किताबों के बीच खो जाने की ही प्रेरणा देते थे, लेकिन वक़्त के साथ सब बदल जाता है, यही हाल रमेश का भी था वो निश्चित नहीं कर पा रहा था कि जीवन की अमूल्य पुस्तकों का उपयोग तो उसने किया पर उसकी सफलता शायद उससे कोसों दूर ही होती चली जा रही थी, उम्र एक ऐसी चीज है जो थमती नहीं और सफलता एक ऐसा लक्ष्य बन गयी थी जो मिलती नहीं थी!!
रमेश ने चाय खत्म की और फिर टी-शर्ट के बटन लगाता हुआ बाहर आया, जैसे कहीं जाने की तैयारी में था, बाहर आया तो सामने सोफे पर पिताजी बैठे हुए थे उन्होंने उसे देखते हुए पूछा,’कहाँ जा रहे हो?’, रमेश ने मुस्कराते हुए कहा, ’कहीं नहीं पापा बस यही आकाश के घर से आता हूँ उसने बुलाया था मिलने, हरीश भैया लोग आये हुए हैं…’ रमेश का उत्तर सुन पिताजी थोडा मुस्कराए और बोले, ’हाँ हाँ बिलकुल मिल आओ…आखिर इन बड़े लोगों से थोडा मिलते रहना चाहिए, ना जाने कब काम आ जायें…’ पिताजी का ये उत्तर सुनकर रमेश को जैसे एक व्यंग्य सा ही समझ में आया, पर उसके लिए मानो अब ऐसे व्यंग्य आम बात थीं, सब समझते थे कि आकाश की मदद से रमेश कोई नौकरी पायेगा, लेकिन रमेश ऐसा कभी नहीं चाहता था, वो स्वाभिमानी था, उसके जटिल परिवार में क्योंकि ऐसे लोग भी थे जो उसके इस तरह नौकरी करने पर तरह तरह की बातें कहते!!
रमेश मुस्कराया और चप्पल पहनकर पैदल ही घर से निकल गया, पैदल चलने पर उसे हमेशा उन गलियों में अपना अतीत सा दिखता था, यूँ तो आकाश का घर उसके घर से कुछ १० मिनट की दूरी पर था लेकिन उसके मन में हमेशा ऐसा लगता जैसे वो किन्ही बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ रहा है, और फिर उसे याद आते उसके आकाश के साथ बिताये बीते हुए वे क्षण, जिन्हें याद करके शायद रमेश को मन ही मन तसल्ली मिलती थी या कोई दिलासा कि इतना बड़ा आदमी होकर भी आकाश उसका अपना दोस्त था, शायद कोई आकर्षण ही था उन दिनों में जब वो और आकाश साथ थे, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच अब आकाश का जीवन बंध चुका था और रमेश का जीवन मानो प्यासे को पानी की तलाश जैसा हो गया था, फिर वो याद करता अनीता को उसकी बातों को और अतीत के अनंत गगन में जैसे रमेश हमेशा के लिए खो जाता!!
उन यादों में कभी रस था कभी कडवाहट लेकिन इस १० मिनट के सफ़र में जैसे एक पूरी यात्रा थी और एक पूरा जीवन था!
रमेश आकाश के घर पहुंचा वही आलीशान बंगला, और बड़ा सा गेट और अन्दर से आती बच्चो के खिलखिलाने की आवाजें, ये सब जैसे रमेश को थोडा उत्साहित करते थे और थोडा सा डरते भी थे, ये डर अक्सर रहता था जब वो बहुत दिनों बाद किसी से मिलता था, लेकिन हरीश साहब तो घर के ही थे जैसे काफी बार मिल चुके थे तो एक अच्छा सम्बन्ध सा बन गया था हरीश भैया के साथ… वो बड़ा सा दरवाजा अन्दर से बंद था, रमेश के लिए जैसे अनंत जिज्ञासाओं का बड़ा सा डिब्बा खुलने वाला था, प्रश्नों की बौछार के लिए मानो तैयार एक योद्धा ने डोरबेल बजायी और एक ही बार में मुस्कराती सी काव्या ने दरवाजा खोला, रमेश का अनुमान सही था, बच्चे खेल रहे थे और उनके बीच में आकाश के पिताजी बैठे उनसे मजे ले रहे थे! जाहिर था रमेश का एक ही पुराना प्रश्न उस घर में आते ही काव्या से, ’आकाश कहाँ है?’, ‘अरे ऊपर बैठे हैं हरीश भैया के साथ, ’काव्या ने मुस्कराते हुए कहा, घर में काफी चहल पहल थी, हॉल से ही सीढियां ऊपर की तरफ जाती थीं, रमेश आकाश के कमरे से परिचित था, बड़े ठाट का कमरा था उसका बड़ा सा बेड और उसके सामने लगा आइना. बाजू की टेबल में रखा कंप्यूटर और एक तरफ बड़ी सी अलमारी में रखी कुछ साहित्यिक किताबें, रमेश आकाश के कमरे के गेट के सामने पहुंचा और आवाज दी, अरे आकाश…!
आकाश ने जैसे ही रमेश को देखा उसका चेहरा ख़ुशी से भर सा गया उसकी मुस्कराहट बढ़ सी गयी और आते ही उसने रमेश का हाथ पकड़कर कहा, ‘आहा…बड़े अच्छे समय पर आये हैं जनाब आप!’ और मुस्करा दिया, अन्दर कुर्सी पर हरीश भैया बैठे थे, चश्मा लगाये, हल्के मोटे से, मोटी मूंछों के मालिक और बड़े साफ़ सुथरे कपडे पहने, उन्होंने रमेश के आते ही हँसते हुए कहा, ’अरे आओ आओ भाई…वाह बहुत दिनों बाद मिले!’ खुशमिजाज़ आदमी थे तो स्वाभाविक ही मुस्कराना उनका नेचर था, उन्हें देखते ही रमेश उनके पैर छूने लपका और यकायक हरीश जी ने उसे हँसते हुए, ’अरे बस बस कहते हुए रोक लिया,,,!’ रमेश और आकाश फिर एक साथ उस गद्देदार बिस्तर में ही बैठ गए सभी के चेहरों पर हंसी थी, मुस्कराहट थी! तभी हरीश भैया ने पूछा, ’कैसे हो रमेश? पिताजी कैसे हैं?’ बड़ी आत्मीयता से पूछा था और रमेश ने भी बड़ी ख़ुशी से उत्तर दिया, ’मैं एक दम बढ़िया हूँ भैया, आज ही गाँव से लौटा हूँ और पापा भी बढ़िया है, बस थोडा पैरों पर दर्द रहता है, हरीश बाबू के चेहरे के भाव कुछ अफ़सोस भरे हो गये, लेकिन फिर अकस्मात् मुस्कराते हुए बोले, ‘अरे भाई आकाश ने बताया दिल्ली जा रहे हो,?’ वाह आते ही पहला वार, रमेश ने मुस्कराकर कहा, ’हाँ भैया यहाँ पढाई नहीं हो पाती है दिल्ली ही जाना पड़ेगा वहीँ, क्लासेज लगाकर पढूंगा!!’ ,’हाँ आईडिया तो अच्छा है रमेश पर तुम्हे नहीं लगता कि साथ ही साथ कोई जॉब भी पकड़ लो?’, इसबार हरीश बाबू का प्रश्न विकट हो गया, अब आकाश ने स्थिति को देखकर जोर से हँसते हुए कहा, ’अरे क्या भैया आते ही उसके पीछे पड गए, और फिर उसने काव्या को आवाज लगायी….’ अरे काव्या…ओ काव्या…. अरे कुछ चाय वगैरह लाओ,’ इसबार रमेश आकाश को रोकते हुए बोला,’अरे रहने दे यार…अभी घर से चाय पीकर चला आ रहा हूँ….” आकाश बोला यार थोड़ी तो पीले हमलोग बस पीने ही वाले थे,’आकाश ने जैसे समझाते हुए रमेश से कहा…’ फिर रमेश ने आकाश से कहा,’हम्म…चल ठीक है!!’ और दोनों हंस दिए, हरीश भैया के फोन पर किसी का फोन बार बार आ रहा था वे उठे और बालकनी में जाकर बात करने लगे, इस बीच कमरे में आकाश और रमेश ही बचे!!
आकाश ने रमेश से पूछा,’यार अनिल मामाजी से मिलने गया था..मिल आया?’
’हाँ भाई मिल आया’ रमेश ने मुस्कराते हुए कहा
‘चल अच्छा किया जाने से पहले सबसे मिलले भैया..क्या पता कल को बड़ा अफसर बन गया तो हमे कौन पूछेगा” ऐसा बोलकर आकाश हंस दिया!
रमेश भी उसे देखकर मुस्करा दिया और फिर बोला, ‘यार आजकल बहुत बिजी रहता है?’
‘हाँ बे सारे झंझट पीछे पड़े हैं, पिछले बार जिस कंपनी से हमने माल सप्लाई की बात कर ली थी उसने आखिरी समय पर ना कह दिया, अब हमे दूसरा कस्टमर खोजना पड़ेगा, दूसरी कंपनियों से बात तो चल रही है पर साला कोई सही दाम नहीं बोलता,’आकाश जैसे परेशानी में बोला
यार तुम्हारा प्लास्टिक तो पूरे एमपी में बिकता है फिर क्यों परेशान होता है, जल्द अच्छा ग्राहक मिल जाएगा मेरे भाई’, रमेश मानो सांत्वना देता सा बोला!
तभी कमरे में काव्या ने एंट्री ली और चाय का ट्रे लेकर आगे बढ़ी, ‘लीजिये जनाब छाए, अरे हरीश भैया कहाँ गए,उसने अचानक पूछा,
बाहर ही हैं आते होंगे किसी से फोन पर बात कर रहे हैं,’आकाश ने जवाब दिया!
फिर काव्या ट्रे टेबल पर रख कर नीचे चली गयी, अब रमेश और आकाश चाय की चुस्कियां लेने लगे और इसी बीच हरीश भैया अन्दर आये, ‘अरे यार मेरे अंडर के लोग भी बिलकुल निखट्टू हैं बिलकुल ढंग से काम नहीं देखते, हर बात समझाओ सालों को…’ हरीश जी कुछ खीझते से बोले
‘आकाश हँसता हुआ बोला,…’शांत गदाधारी भीम… शांत…’ इसपर रमेश की भी हंसी छूट गयी!
हरीश भैया भी मुस्कराते हुए वही कुर्सी पर बैठ गए और जैसे उन्होंने अकस्मात् ये प्रश्न उठा दिया,’अरे रमेश तुमने भी तो सिविल इंजीनियरिंग की पढाई की है, भाई मेरे साथ आ जाओ अहमदाबाद अच्छा पैकेज दिलवा दूंगा!!’
विप्लव के बादलों के बीच घने अँधेरे में जैसे कोई जुगनू अपने प्रकाश से अँधेरा मिटने की कोशिश करती है बस उसी तरह उठा ये प्रश्न मानो एक टिमटिमाता सा द्वीप बन तत्क्षण रमेश के लिए उभरा पर यकायक उसे अपने गहर की याद आई और वो बुझे से स्वर में बोला,’अरे भैया… मैंने अब ठान ली है प्राइवेट में जॉब ना करना अब तो बस गवर्नमेंट की नौकरी चाहिए….फिक्स वाली’!
रमेश का उत्तर सुनकर हरीश भैया मुस्कराए और बोले, ’अरे रमेश पर जरा सोचो तो भाई उम्र इतनी बढ़ी जा रही है और सरकारी नौकरी के पीछे कब तक भागोगे?’ मेरी मानो चलो सामन पैक करके अहमदाबाद!!’
इसबार हरीश भैया बड़ी शांति से तीर चुभो गए, मानो ये अकस्मात कही बात दुःख के पहाड़ और ख़ुशी की बरसात दोनों की तरह एक साथ रमेश पर झरी हो, पर वही एक बंधन रमेश का जो हमेशा के लिए उससे जुड़ गया था बार बार एक ही प्रतिउत्तर देने पर उसे मजबूर करता था और वो था, ‘अरे…बस भैया अब और नहीं… आई ए एस की तैयारी ही करूँगा…’!
इसी बीच आकाश जैसे मोर्चा संभालता सा बोला.’अरे भैया मैं हज़ार बार समझा चूका इस आई ए एस के भूत को पर मानता ही नहीं, उसकी जो इच्छा है करने दो..’ और आकाश रमेश को देख मुस्करा दिया .
इस समर्थन जैसे दिखने वाले वाक्य ने मानो रमेश को भी बड़ा सहारा दिया और और वो बस आकाश को देखकर मुस्करा दिया, इसपर हरीश जी ने चाय खत्म कर खली कप टेबल पर रखते हुए बस इतना कहा,’अच्छा ठीक है भाई, जैसी इनकी मर्जी’ और जोर से हंस दिए!!
इस हंसी में कोई व्यंग्य नहीं था ना ही इसमें कोई मखौल था.ये हंसी मानो बस एक स्वाभाविक हंसी जैसी ही थी!!

जारी रहेगा…

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “उपन्यास : उम्र (सातवीं कड़ी)

  • विजय कुमार सिंघल

    उपन्यास स्वाभाविक तरीके से आगे बढ़ रहा है. व्याकरण की गलतियाँ खटकती हैं. इनको सुधारने की कोशिश कीजिये. फिर मैं देख लूँगा.

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