उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (सत्ताईसवीं कड़ी)

पांडवों ने कृष्ण को हस्तिनापुर जाने के बारे में सहमति दे दी थी, लेकिन कई बातें अभी भी उनके मस्तिष्क में गूंज रही थीं। भीम और अर्जुन अपनी प्रतिज्ञाओं के बारे में सोच रहे थे। जब उनसे नहीं रहा गया तो भीम बोल ही पड़े- ‘वासुदेव, अगर दुर्योधन ने आपका शान्ति प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और युद्ध नहीं हुआ, तो हमारी प्रतिज्ञाओं का क्या होगा? पांचाली ने भी दुःशासन के रक्त से अपने केश धोने की प्रतिज्ञा कर रखी है, उसका क्या होगा? क्या उसके सुन्दर केश सदा इसी प्रकार खुले रहेंगे?’

कृष्ण ने इस प्रश्न की आशा कर रखी थी और इस पर पहले ही विचार कर लिया था। इसलिए उत्तर देने में उनको कोई कठिनाई नहीं हुई- ‘महाबली, आप सबकी प्रतिज्ञायें अवश्य पूरी होंगी। इस बात की आशा बहुत ही कम लगभग शून्य है कि दुर्योधन युद्ध से विरत हो जाएगा और शान्ति स्थापना के लिए उद्यत हो जाएगा। लेकिन यदि ऐसा हुआ, तो आपकी प्रतिज्ञाओं को पूर्ण करने का कोई अन्य उपाय सोचा जाएगा। प्रतीक रूप में भी उनको पूर्ण किया जा सकता है। आप निश्चिंत रहें।’

यह उत्तर सुनकर भीम का समाधान हुआ या नहीं कहना कठिन है, लेकिन उन्होंने और कोई प्रश्न नहीं पूछा। परन्तु युधिष्ठिर इससे भी बहुत आगे की सोच रहे थे। उनके मस्तिष्क में एक के बाद एक अनेक आशंकायें उमड़ रही थीं। उनका समाधान हुए बिना वे कृष्ण को जाने की अनुमति नहीं दे सकते। सबसे बड़ी चिन्ता तो उन्हें कृष्ण की सुरक्षा की थी। अन्त में उनकी चिन्ता प्रकट हो ही गयी- ‘भगवन्! मुझे आपकी सुरक्षा की चिन्ता है। आप जानते ही हैं कि दुर्योधन की प्रवृत्ति कैसी है। जो भरे दरबार में एक अबला का अपमान कर और करा सकता है, वह आपके साथ भी कोई भी अनुचित कार्य कर सकता है। अगर उसने आपको बन्दी बनाने की या प्राण लेने की चेष्टा की, तो आप क्या करेंगे। आप हमारे सबसे बड़े हितैषी हैं, परामर्शदाता हैं और नायक हैं, हम आपको खोने की कल्पना भी नहीं कर सकते। आपके बिना हम कुछ नहीं हैं। इसलिए मेरा मन आपको जाने की अनुमति नहीं दे रहा, वह भी तब जब इस प्रयत्न की सफलता प्रारम्भ से ही संदिग्ध है।’

कृष्ण ध्यानपूर्वक युधिष्ठिर की बातें सुन रहे थे। उनकी बात में बल था। दुर्योधन के ऊपर लेशमात्र भी विश्वास नहीं किया जा सकता। जो व्यक्ति पांडवों को माता सहित जीवित जलाने का षड्यंत्र रच सकता है, वह कृष्ण के विरुद्ध भी कुछ भी कर सकता है। इस बात पर भी उन्होंने पहले ही विचार कर लिया था। लेकिन उन्होंने अपनी पूरा योजना को पांडवों के सामने प्रकट नहीं किया, उसकी आवश्यकता भी नहीं थी। उन्होंने केवल इतना कहा- ‘सम्राट, आपकी चिन्तायें अपनी जगह उचित हैं। परन्तु मैं अपनी रक्षा स्वयं करने में समर्थ हूं। वैसे तो मैं समझता हूं कि दुर्योधन मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचने की मूर्खता नहीं करेगा। लेकिन यदि उसने ऐसी कोई भी चेष्टा की, तो फिर आपको युद्ध नहीं करना पड़ेगा। मैं अकेला ही उन सबको वहीं नष्ट कर दूंगा। आप कोई चिन्ता न करें। दुर्योधन इस बात को भूला नहीं होगा कि राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल के साथ क्या हुआ था। वह सुदर्शन चक्र आज भी मेरे पास है और सदा रहता है। यदि उसे दुर्योधन या किसी अन्य कौरव की ग्रीवा काटनी पड़ी, तो वह संकोच नहीं करेगा। आप निश्चिंत रहें।’

सभी पांडव श्रीकृष्ण की क्षमताओं से भली प्रकार परिचित थे। इसलिए इसमें सन्देह का कोई अवकाश ही नहीं बचा था। उनकी जो अन्तिम आशंका थी, वह दूर हो चुकी थी। लेकिन अभी कुछ बातें शेष थीं। इसलिए युधिष्ठिर ने पूछा- ‘भगवन्, क्या आप हस्तिनापुर अकेले ही जायेंगे?’

‘मैं शान्ति प्रस्ताव लेकर जा रहा हूं, इसलिए अकेले जाना ही उचित होगा। परन्तु रास्ते में ऊब न हो, इसलिए मैंने सात्यकि को साथ ले जाने का निश्चय किया है।’ कृष्ण इस बात को छिपा गये कि सात्यकि को साथ ले जाने से उनका क्या उद्देश्य पूरा होगा। पांडवों को यह सब बताने की आवश्यकता ही नहीं थी।

‘सात्यकि को साथ ले जाने का आपका विचार उत्तम है, वासुदेव। वे आपके बचपन के साथी हैं और महारथी हैं।’ जब युधिष्ठिर यह कह रहे थे तो अन्य सभी पांडव सहमति में सिर हिला रहे थे।

एक अन्य बात युधिष्ठिर बहुत पहले से कहना चाहते थे। उसे कहने का यह उन्होंने सही अवसर समझा- ‘वासुदेव, हमारी माता और आपकी बुआ वहीं हस्तिनापुर में ही हैं और विदुर के निवास पर ही रह रही हैं। आप उनसे हमारा प्रणाम निवेदन करें और हमारी कुशल-क्षेम उनसे कहें। आप हमारे लिए उनका आदेश प्राप्त करें कि इन परिस्थितियों में हमारे लिए क्या करना उचित होगा। मैं स्वयं उनका आशीर्वाद लेने हस्तिनापुर चला जाता, परन्तु युद्ध की परिस्थितियों में मेरा वहां जाना उचित नहीं होगा।’

‘अवश्य, ज्येष्ठ भ्राता, मैं बुआ को आपका सन्देश कहूंगा और उनका आशीर्वाद आपके लिए प्राप्त करूंगा। मैंने भी दीर्घकाल से उनके दर्शन नहीं किये। अब बहुत दिन बाद उनसे जीभरकर बातें करूंगा।’

यह कहकर कृष्ण धीरे से मुस्करा दिये। उनकी मोहक मुस्कान से सभी परिचित थे, जो हर समय ही उनके मुख मंडल पर खेलती रहती थी। लेकिन जब वे सप्रयास मुस्कराते थे, तो सभी मंत्र-मुग्ध हो जाते थे। जिस मुस्कान ने कभी पूरे ब्रज को मोहित कर रखा था, वही मुस्कान उस समय कृष्ण के श्रीमुख पर खेल रही थी। उसने पांडवों को भी सम्मोहित कर लिया।

पांडव अपनी इस स्थिति से तब बाहर आये, जब कृष्ण ने युधिष्ठिर को लक्ष्य करते हुए यह कहा- ‘सम्राट, क्या आप अपनी ओर से कौरवों को कोई सन्देश या प्रस्ताव देना चाहते हैं?’

‘वासुदेव, मैं जो सन्देश या प्रस्ताव देना चाहता था, वह हमने अपने पुरोहित धौम्य द्वारा पहले ही भेज दिया था। वह उनको स्वीकार नहीं हुआ। इससे अतिरिक्त मेरे पास कोई सन्देश या प्रस्ताव नहीं है। वहां जाकर क्या कहना है, यह आप स्वयं भलीप्रकार जानते हैं। आप हमारे दूत की तरह नहीं, बल्कि प्रतिनिधि के रूप में जा रहे हैं। आप हमारी ओर से कोई भी प्रस्ताव रखने में सक्षम हैं। आप जो भी प्रस्ताव रखेंगे, वह हमें पूर्णतया स्वीकार होगा, क्योंकि हम आपको ही अपना सबसे बड़ा हितैषी मानते हैं और हमें विश्वास है कि आप जो भी करेंगे, वह हमारे हित में ही होगा।’

कृष्ण जानते थे कि युधिष्ठिर का कथन सत्य है। इसलिए उन्होंने केवल सहमति में सिर हिलाया।

अन्त में युधिष्ठिर ने अन्तिम प्रश्न पूछ लिया- ‘आप कब प्रस्थान करने वाले हैं, गोविन्द?’

‘मैं आज ही दोपहर को यहां से चल देना चाहता हूं, ताकि दिन रहते हस्तिनापुर पहुंच जाऊं। आप कोई सन्देशवाहक भेजकर कौरवों को मेरे आने की पूर्व सूचना दे दें।’

‘अवश्य, भगवन्! मैं अभी सन्देशवाहक भेजता हूं। आप प्रस्थान की तैयारी करें।’

सहमति में कृष्ण का सिर हिलते ही सभी पांडव उनके कक्ष से चले गये।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

2 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (सत्ताईसवीं कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , पड़ कर ऐसा मालूम होता है जैसे यह आज के युग में हो रहा हो . क्रिशन का पांडवों के साथ इस तरह बातें करना जैसे आज के समय में युद्ध के अछे और बुरे पड़ने वाले परभाव के बारे में सोचा जा रहा हो . जिंदगी में पहली दफा महांभारत पड़ने में मज़ा आ रहा है . जब कि भली भाति पता है कि दुरजोधन अपने बुरे विचारों को छोड़ नहीं सकेगा . पांडवों को जलाने की साजिश , यूधिश्टर को जूए में दगा देना , इन्दरप्रस्त छीनना और सब से बुरी बात दरोपति को बेईज़त करना , जिस ने ऐसे ऐसे काम किये हों उन से कुछ अच्छी बात की आशा करना बेमाने हैं . फिर भी अछे नीतिवान आखिर दम तक मामला सुलझाने की कोशिश करते हैं . क्रिशन के पास जो भी हथिआर जैसे सुधार्शन चक्कर थे उस को उन पर भरोसा था इस लिए वोह बगैर किसी चिंता के दर्जोधन को मिलने के लिए तियार हो गए . जो होने वाला था वोह तो क्रिशन को पहले से पता था , आखिर वेद्विआस जी की भविष्वाणी कैसे पूरी होती ?

    • विजय कुमार सिंघल

      भाई साहब प्रणाम। बिल्कुल सही समझा है आपने। आभार।

Comments are closed.