कविता

तेरो जोर नाय चलत घट घट पे

तेरो जोर नाय चलत घट घट पे
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते
तेरो जोर नाय चलत घट घट पे
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते

भरी गगरिया ले राधा जहिहे
जाने किन किन से का कहिहें
श्याम निसाना चूक गयो,
सुनके कहो हम कैसे रहिहें
कहो तो हम ही फोर डारें मटकी
तो को लगत जो मान घटत है
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते
तेरो जोर नाय चलत घट घट पे
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते

थोड़ी जो दीदन मै सरम है
तो कान्हा तोय राधा कसम हैं
तू ही तो कहात तो हम ते
यारी ते बड़ो नाय कोई धरम है
एक मटुकिया के पाछे तू
बात से काहे पीछे हटत है
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते
तेरो जोर नाय चलत घट घट पे
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते

पर काहे को राधा रोय रही है
नैननन ज्योती खोय रही है
मटकी तो है सजी की सजी
काहे बिरज डुबोय रही है
कान्हा – कान्हा काये रटत है
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते
तेरो जोर नाय चलत घट घट पे
कान्हा भरी मटकी जात पनघट ते

देख तो ले पहले खाली है मटकी
लाओ उतार कान्हा डोरई लटकी
बिना बात तू इतनो बिगर गओ
कि यारी तेरी आंखन खटकी
मटुकिया तो मिल जइहे निरी
पर रसरी नित कौन बटत है
कैसे राधे जैहिहे पनघट ते
कान्हा को जोर चलत घट घट पे
कैसे राधे जैहिहे पनघट ते
कान्हा को जोर चलत घट घट पे

________________अभिवृत

2 thoughts on “तेरो जोर नाय चलत घट घट पे

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह अभिवृत जी, ब्रज भाषा की मधुर कविता पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।

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