कविता

दो कवितायेँ

१.

आश्वासनों के गरजते बादलों की हो रही है बरसात
चकोर की भांति निहार निहारकर टूट चुकी है आस
भ्रष्टाचार के गंदे नालों के साथ मिलकर

बहने लगी है गंगा यमुना और सरस्वती

नभ जल थल से लेकर प्रदूषित हो चुकी है तन मन और मति
ऐसे में आओ हमीं सोचें समझें नैतिकता फिर कैसे जनमे
संस्कार फिर कैसे उपजें
अध्यात्म और योग ही बन सकता है आशा की नयी किरण
उसके द्वारा ही हम ले सकते हैं स्वच्छ तन और स्वच्छ मन
आओ हम योग सीखें और योग सिखलायें
मिलजुलकर एक सशक्त भारत बनायें

२.

एक दिन अनायास किया मैंने प्रयास
ईमानदारी की अंगीठी जलाई
नैतिकता और आदर्शों की दो रोटी उस पर बनायी
पर खाने बैठा तो लगा नहीं वो स्वाद
क्योंकि जब से बडा हुआ हूं
भ्रष्टाचार का चूल्हा ही अपने चारों तरफ जला पाया है
और रोज नैतिकता और आदर्शों की चटनी बना उससे खाना खाया है।
अब मेरा प्रश्न यह है कि ईमानदारी की अंगीठी पर रोटी बनाकर खायें तो पेट नहीं भरता
भ्रष्टाचार के चूल्हे का खाना तो लगता है बड़ा स्वादिष्ट पर अब मेरा मन नहीं करता
कैसे हो मेरे मन और पेट की समस्या का समाधान
और जब तक नहीं होगा समाधान
तब तक नहीं हो सकता मेरा भारत महान्

अशोक गुप्ता

साहिबाबाद निवासी, आटे-अनाज के व्यापारी, मंचों पर कवितायेँ भी पढ़ते हैं.

2 thoughts on “दो कवितायेँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कवितायेँ, भाई साहब.

    • अशोक गुप्ता

      फिर धन्यवाद, विजय जी.

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