कहानी

आॅटिज्म

खूब गोल मटोल बच्चा काले घुंघराले बाल चेहरे पर इधर उधर छितराई हुई सी लटें। बड़ी बड़ी आॅंखों में मोटा काजल और माथे पर काला टीका। एक सुन्दर सा बच्चा मेरे सामने है। जी चाहता है अपने सीने से लगा कर उसे चूम लूं और उससे ढेर सारी बातें करुं। कितना सुखद होगा सुनना उसका तुतलापन ….. एकाएक जैसे धड़ाम से गिरी हूं अभी अभी, जब मैंने जाना उस बच्चे की असलीयत! वक्त जैसे ठहर गया हो! कई बार सच भी गूंगा हो जाता है! यह बच्चा बोल नहीं सकता! काश वह मुझसे अपनी तुतली ज़बान में टाफी दिलाने की जिद करता, बहुत तेज चिल्लाता और मैं अपने दोनो कान बंद करके उसे जोर से डपटती- ‘बहुत शैतान है तू, शोर मत मचा!’

अब मैं देख रही हूं उसके आंखों का सूनापन और उसकी लाचारी। हां अब मुझे उसकी नजरें ही पढ़नी होंगी जब जुबां नहीं बोलती तो आंखें बोला करती हैं। मुझे समझनी होंगी उसकी भाव भंगिमाएं और उसकी बेबसी! संजना इतना सुन्दर तुम्हारा बच्चा है ऐसा कैसे हो गया इसके साथ! मैं एकदम से अधीर होकर बोली उससे!

संजना मेरी बचपन की सहेली बड़े ही लाड़ से पली एक सुसंस्कृत परिवार की लाड़ली आज बेबस नजरों से मुझे देख रही है! अपने आप को संयत करते हुए सिर्फ इतना कहा उसने- ‘अभी अभी तो आई हो चलो हाथ मुंह धोकर कमरे में जाकर बैठ मैं तेरे लिए काॅफी बना कर लाती हूॅं। मैं भी गाजियाबाद से यहां दिल्ली के सफर से थोड़ा थक गई थी डाईवर को मैंने भेज कर शाम को आने का कह दिया था। इस एक रूम के फ्लैट को मैं देख रही थी। संजना ने बड़े ही करीने से सजा रखा था। लेकिन हैरत हो रही थी कि उसने कैसे अपने आप को इतनी खूबसूरती से एडजस्ट कर लिया। संजना ने जब काॅफी का मग मेरे हाथों में पकड़ाया तो मेरी तंद्रा भंग हुई। उसके सुंदर गौर वर्ण चेहरे पर कुछ बेतरतीब लटें अठखेलियां कर रही थी और उसकी नाकाम कोशिशों ने पसीने की दो बूंद जरूर छलका दिया था उसके माथे पर!

‘और बता तू यहां दिल्ली में रह कर बाबू का इलाज नहीं कराया अब तक डाॅ ने क्या कहा?’

‘लेडी हार्डिंग से लेकर सफदरजंग तक दौड़ लगा चुकी हूं, फिर भी हिम्मत नहीं हारी हूं अब तक‘ बड़ी ही मायूसी से उसने जबाब दिया!

संजना के पिता ने जी खोल कर खर्च किया था उसकी शादी में उनकी सबसे दुलारी बेटी जो थी. उसके श्वसुर ने उन्हीं पैसों से घर के पिछवारे में पड़ी ज़मीन पर दो कमरे का फ्लैट ये कह कर बनवाया कि मेरी नई बहू इसी घर में रहेगी! लेकिन संजना ने जब यह बताया कि ये सब सोची समझी साजिश थी तो मैं दंग रह गई! आखिर सब को पता था कि संजना और अविनाश यहाॅं रहने वाले नहीं है अतः फ्लैट को किराये पर लगा दिया गया और नयी नवेली दुल्हन को तत्काल अविनाश के बड़े भाई के कमरे में शिफ्ट कर दिया गया था। ठंडी सांसें भरते हुए संजना अब खुलकर सारी बातें बता रही थी!

उसके घर से जो बड़ा सा पलंग आया था वह एक कोने में पड़ा दम तोड़ रहा था क्योंकि उसे रखने की कोई जगह नहीं थी उस छोटे से घर में! जैसे तैसे वह दस दिन अपने अरमानों का गला घुटते हुए देखती रही वह। चूंकि एकल परिवार में पली थी संजना, तो उसने इतने बड़े परिवार को देख कर ही इस शादी के लिए सहमति जताई थी! ल्ेकिन इमने बड़े घर यानी कि एक परित्यक्ता फुआ जो कि उसी शहर में एक नर्स थी। उनके अलावा उसके श्वसुर के तीन भाइयों का हॅंसता खेलता परिवार जिनसे संजना के पति अविनाश का दस भाइयों और चार बहनों का एक वृहद परिवार था। फिर भी संजना उन सब के बीच अकेली थी क्योंकि घर में इतनी शादियां हो गई थी कि घर के लोगों का नई दुल्हन के प्रति कोई आकर्षण नहीं बचा था!

अब उसकी दुनिया पूर्णतः अविनाश पर टिकी हुई थी! दस दिनों के बाद वह अपनी स्वप्निल दुनिया बसाने यहां दिल्ली आ गई! लेकिन कहते हैं न कि सुख के पल जल्दी बीत जाते हैं। यहाॅं इस छोटे से घर में भी उसकी दुनिया हसीन थी। महीने न बीते थे कि उनके प्रेम ने आकृति लेनी शुरु कर दी। एक नन्हें बीज का अंकुरण हो चुका था! कल्पनाएं हिलोरें मारने लगीं थी। संजना की तबियत बिगड़ने लगी थी। अविनाश की बंधी बंधाई आय से घर का खर्च चलाना और संजना के लिए महंगे अस्पताल में इलाज का खर्च उठाना तो दूर, वहां डिलीवरी कराने की बात वह सोच भी नहीं सकता था! घर पर फोन किया तो जैसे ये रोज की बात हो किसी को भी इस नए मेहमान के आगमन का कोई उत्साह नहीं था! अविनाश ने अपनी मजबूरी बताई तो बाबूजी ने कह दिया कोई नहीं पुत्तर, यहां ले आ बहू को। तू तो जानता है न कि घर में ही नर्स और डा. सब हैं तू फिक्र क्यों करता है! आखिर बड़े बाबूजी के बड़े बेटे शहर के प्रतिष्ठित डा. जो थे और बूआ खुद नर्स थी! इससे पहले भी कई बहूओं के डिलीवरी यहीं हुए थे वह भी कम से कम खर्च में!

अगले महीने ही अविनाश संजना को घर ले आया था। संजना के लिए उस घर में अपने आप को फिट रखना था जहां उसका अपना कोई कोना ही नहीं था। सिवाय अविनाश के वह किसी में अपनापन नहीं देख रही थी। वह भी उसे दो चार दिन में छोड़ के चले जाने वाला था। उसका न तो अपना कोई कमरा था और न ही सोने का अपना बिस्तर। संजना के पापा ने जो उसे बड़ा सा बेड बनवाकर दिया था वह तो अविनाश की भाभी ने उससे कह कर अपने ही रुम में लगवा लिया था। अंत में तय हुआ कि बड़े भैया जो डाक्टर थे अपनी पढ़ाई पूरी करने पटना गए हुए थे, अतः भाभी के साथ ही संजना सो जाया करेंगी। अविनाश अपने कर्तव्यों की इतिश्री करके वापस दिल्ली जा चुका था।

इधर संजना के पापा ने जब यह खबर सुना कि उनकी फूल सी बेटी मां बनने बाली है तो वह खुशी से फूले नहीं समाए! वे अपनी दिवंगत पत्नी को याद करके रोने लग गए। बड़े ही प्यार से वह संजना की माॅं को गुरु जी कहा करते थे क्योंकि वे एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं। ‘गुरुजी आप आज होती तो कितनी खुश होतीं। मैं कितना अकेला हो गया हॅूं आपके बगैर। कैसे बटोरुं ये खुशियाॅं और कैसे सहेजूं इन्हें!

कल ही वे अपनी बेटी से मिलने उसकी ससुराल चले आए। वहां अपनी बेटी का जब मलीन चेहरा देखा तो वे आत्मग्लानि से भर गए। उन्होंने हाथ जोड़ कर बड़े ही विनीत भाव से अपनी समधिन से कहा हमारे यहां रीति है कि पहले बच्चे का जन्म मायके में ही होेता है। अतः मैं चाहता हूॅं कि संजना का प्रसव भी उसके मायके में ही होना चाहिए। अगर आप लोगों की अनुमति हो तो मैं इसे अपने साथ ले जाना चाहूंगा। उनके इस अनुरोध को सिरे से नकारते हुए ये फैसला लिया गया कि संजना के पहले बच्चे का जन्म यहीं होगा, क्योंकि मायके में तो उसकी माॅं भी नहीं है जो उसकी देखभाल सही से कर पाएगी और इस तरह बेचारे पापा भारी मन से अकेले लौट आए, ये सोच कर कि बेटी के ससुराल में हस्तक्षेप करना उचित नहीं।

संजना को अब हर हाल में वहीं सामंजस्य बिठाकर रहना था। वह भरसक कोशिश करती इस अटपटे माहौल में अपने आप को खुश रखने की, क्योंकि डा. आंटी ने भी कहा था कि स्वस्थ बच्चे के जन्म के लिए उसका खुश रहना बहुत जरूरी था।  पति का विरह भी उसे बेइंतिहा सताता। जब घर के बाकी लोग अपने अपने कमरे में कैद हो जाते अपने परिवार के साथ, संजना बाहर बारिश की बूंदों के बीच अपने आप को बचाती। टिन की छत पर बजती टिप टिप के बीच वह गुनगुनाती- ‘पिया बसंती रे काहे सताए, आ जा‘। कहते हैं न कि पिया बिना सब सून!

अगर पति न हो तो घर वाले भी उस औरत का सम्मान नहीं करते। अब तो नाॅरमल डिलीवरी कराने के नाम पर संजना से सारे घर के काम करवाने की कवायद पूरी कर ली जाती और कुछ खाने को उसका मन चटपटाता तो वह संकोच से मन मसोस कर रह जाती। वह जब अपने पेट पर हाथ फिरा कर अपने अजन्मे शिशु से बात करती तो भावविह्वल होकर कहती कि बाबू तुम जब आओगे न, तो सब ठीक हो जाएगा!

दिन भी पंख लगाकर उड़ चले। कड़कती बिजली और तेज बारिश के बीच एक दिन संजना को असहनीय प्रसव वेदना शुरु हो गई थी! फूआ को बुलाया गया उन्होंने पहले कोशिश की कि घर पर ही सब कुछ हो जाए। इस चक्कर में अस्पताल ले जाने में देरी हुई, जिससे पानी की थैली फट चुकी थी। अस्पताल में डा. ने देखते ही सीजेरियन का फैसला लिया, लेकिन घर वालों ने जोर डालकर कहा कि हर हाल में नारमल डिलीवरी होनी चाहिए। डा. की किसी ने एक न सुनी। डाक्टर ने भी हथियार डाल दिये और छोड़ दिया संजना को ऊपर वाले के भरोसे! काफी पीड़ा सहने के बाद संजना ने एक पुत्र को जन्म दिया! घरवालों ने अपनी विजय की डुगडुगी बजाई आखिर श्रेय तो उन्हें ही मिलना था।

अविनाश भी चार दिनों की छुट्टी लेकर आ गया था। फिर खानापूर्ति करके आश्वस्त होकर वापस चला गया कि घर में जच्चा बच्चा की उचित देखभाल हो जाएगी! उसके सामने सब सजग भी रहते थे इसलिए संजना के कहने पर भी अविनाश उसकी बातों पर कान नहीें देता था। संजना की जेठानियों का ध्यान उससे अधिक उसके गहने और कपड़ों पर रहता था। संजना अब गर्भवती माता बन चुकी थी अब उसे दोगुनी खुराक की जरूरत थी लेकिन पुरानी मान्यताओं का वास्ता देकर उसे अब भी खाने से महरूम रखा जाता था। नतीजतन उसके स्तनों में दूध ही नहीं उतरा। जब बच्चा भूख से बिलबिला कर रोता तो उसकी सासू मां उसके गोद से बच्चे को छीन कर घर की अन्य बहुओं को दे आती, जो स्तनपान कराती थीं। दो चार दिन के बाद वो झंझट भी खत्म करके एक बोतल पकड़ा दी गयी। इस तरह छः महीने गुजारने के बाद अविनाश उसे यहां ले आया था।

मेरा बच्चा कुछ सामान्य नहीं है यह बात मुझे कुछ दिनों में ही समझ में आने लगी थी जब चलने की उम्र में उसे चलने में काफी कठिनाई हुई, हम दोनों उसे रोज किसी पार्क में ले जाते। नरम घास में नंगे पांव चलाने की कोशिश करते एक बुढ़िया, जो वहां रोज योगा करने आया करती थी, उसे देखा नहीं जाता था। हमारा दुःख आसमान में हाथ उठा कर दुआ करती- ‘हे ईश्वर इसको चलना सिखा दे।’ शायद उनकी दुआ का असर था कि वह दो साल में चलने लगा। अच्छी तरह से लेकिन इस बीच हम लोगों ने यह नोटिस किया ही नहीं कि ये तो बोलता भी नहीं है। फिर कवायद शुरु हुई दिल्ली में इलाज की। लेडी हार्डिंग से सफदरजंग तक दौड़ लगा लगा कर थक चुकी हूॅं अब तक।

ठंडी सांस छोड़ते हुए जब संजना ने जब यह बात कही तो मैने उसे गले लगाकर ढाढ़स बंधाया। अपनी साड़ी के पहलू से अपने गाल पर लुढ़कते हुए आंसू को पोंछ कर अपनी बात आगे बढ़ाई। सब जगह बच्चे का इलाज कराने के बाद निष्कर्षतः डाक्टर ने यही कहा कि बच्चे के जन्म में बरती गई लापरवाही और उचित खानपान व देख रेख के अभाव के कारण बच्चे की यह दशा हुई है यह आॅटिस्टिक बच्चा है जिसका विकास धीरे धीरे होगा!

मैने पूछा घर वालों ने इसकी जिम्मेदारी ली या नहीं, तो उसने कहा कतई नहीं। उनका मानना है कि इतने बच्चे हुए आखिर यहां सब तो सामान्य ही हैं, ये तो भाग्य का दोष है। मेरी सासू मां ने तो आदेश दिया है कि मैं अगले साल ही ‘छठ पर्व‘ उठा लूं। छठी माई मेरे पोते को कंठ अवश्य देंगी!

पी पी की लगातार ध्वनि से मेरी तंद्रा टूटी तब मुझे पता चला मेरी गाड़ी आ चुकी थी। मैंने संयत होते हुए भारी मन से उससे विदा ली। बच्चे को उठा कर एक बार सीने से लगाया और फिर आने का वादा करके अपनी गाड़ी में आकर बैठ चुकी थी!

मेरी गाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी संजना और उस मासूम बच्चे का चेहरा पीछे छूटता जा रहा था…।

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- sangsar.seema777@gmail.com आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

2 thoughts on “आॅटिज्म

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कहानी, सीमा जी.

    • सीमा संगसार

      Aabhar vijay jee!

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