कहानी

कहानी : ढलती सांझ

रात के दो बज रहे होंगें। इस शांत नीरव वातावरण में किसी के क्रंदन की आवाज मानों आकाश गर्जना कर रही हो। जहां हल्की सी फुसफुसाहट भी रात में जोरों की आवाज लगती हों यह तो किसी के रोने की आवात थी। वैसे भी मेरी नींद काफी कमजोर है. कब खुल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता ठीक उस पैसेंजर ट्रेन की तरह जिसका राईट टाईम तो सबको पता होता है लेकिन वह कब आएगी और कब जाएगी यह कोई नहीं बता सकता ………

मैं अनायास ही बिस्तर से उठ बैठी और दरवाजा खोलते हुए सीद्या बालकनी की तरफ भागी मेरे दो मंजिले बालकनी से मेरे मुहल्ले का लगभग हर धर दिख ही जाता है।रोने की आवाज कमला की थी मैंने उसकी बेटी रद्यीया को अपने पास बुलाया। रद्यीया माने इस मुहल्ले की खबरीया चैनल उसे मुहल्ले की सारी बातें सबसे पहले मालूूम रहती थी। उसने उपर आकर बताया कि ‘‘ पड़ोस वाले दादाजी का देहांत हो गया है…”. आखिर मानवता हार गई मानव के साथ जंग लड़़ते लड़ते मैने उन्हें मन ही मन विनम्र श्रद्धांजलि दी. एक अनोखे व्यक्तित्व को जो मुझे हमेशा याद आएंगे………..

दादा जी मतलब प्रो0 राम इकबाल सिंह जिसे हमलोग प्रो0 साब के नाम से भी जानते थे। एक वृद्ध व्यक्ति की यह दुर्दशा ! मेरी आॅंखों की नींद कब से जा चुकी थी और मैं लगातार उनके बारे में ही सोचती जा रही थी। लंबा कद, गोरा रंग,लंबी नाक दुबला पतला शरीर कुंल मिला कर आर्कषक व्यक्तित्व था उनका! अंग्रेजी विषय के प्राद्य्यापक थे साथ ही एक अच्छे साहित्यकार भी थे। केभी कभी मैं सोचा करती थी कि जवानी के दिनों में ये कितने खूबसूरत और आर्कषक रहे होंगे. वैसे तो मैं इन्हें रोज शाम में अपने घर के बाहर अकेले बैठे देखा करती थी लेकिन इनमें मेरी रुचि तब से बहुत जग गई थी जब एक दिन मैं शाम में यूंही बैठी थी अपने बालकनी में कि तभी लाल बत्ती की गाड़ी और उसकी तेज आवाज से मेरी तंद्रा भंग हो गई थी। फिर मुझे याद आया कि कल ही टी0वी0 में एक लोकल न्यूज चैनल में प्रो0 साब का मुख्यमंत्री के जनता दरबार में अपनी सारी जमा पूॅंजी सामाजिक कल्याण के लिए खर्च करने हेतु दान करने की पेशकश की थी।

प्रो0 साब का एक छोटा सा परिवार था पत्नी सुशीला जी भी सरकारी विद्यालय में कार्यरत थी और उनकी इकलैती लाडली पुत्री थी गुंजन! जिसे उन्होंने पढ़ा लिखा कर एक साॅफ्टवेयर इंजीनियर से शादी कर दी थी। उनकी जिम्मेवारी लगभग खत्म हो चुकी थी। प्रो0 साब का जीवन काफी सादगी पूर्ण था, सुशीला जी अभी भी अपने कपड़े खुद सिल कर पहनती थी। अतः उनकी वर्षों की कमाई हुई जमा पूॅंजी से एक तगड़ा बैंक बैलेंस बन गया था जिसे उन्होंने संजो के रखा हुआ था। उन्होने एक सुंदर धर बनाने का सपना भी देखा था…

‘‘झिलमिल सितारों का आंगन होगा
‘‘रिमझिम बरसता सावन होगा।‘‘
कभी-कभी ये गीत गुनगुनाते हुए वे भाव विभोर हो जाया करते थे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। सुशीला जी को अचानक एक दिन हार्ट अटैक आया और वे चल बसीं। कब प्रो0 साब के जीवन में एकरसता व एकाकीपन ने दस्तक दे दिया था उन्हें खुद पता न चला।अब तो एकदम सन्नाटा था। अब सामाजिक मान्यता सच लगने लगी थी कि एक पुत्र का होना निहायत ही जरुरी है चाहे वह कुपुत्र ही क्यों न हो! अब उनका सफर एकदम दुरुह हो चला था। वे रोज अपनी पत्नी की तस्वीर को निहारते और रोते विलखते रहते थे।

गुंजन माॅं की क्रिया कर्म के बाद वापस जा चुकी थी। गुंजन ने अपने पिता के खाने का प्रबंद्य पड़ोस में ही रहने वाले अपने फुुफेरे भाई दिवाकर के यहां कर दिया था।
प्रो0 साब ठहरे स्वाभिमानी भोजन का मासिक शुल्क तय करके ही इस प्रस्ताव को उन्होने माना। चुंकि अभी उनके नौकरी के दो वर्ष शेष थे अतः यहां रहना उनकी विवशता थी। जब तक पदस्थापित रहे किसी तरह दिन कटता रहा उनका लेकिन रिटायर होते ही दिन काटने को दौड़ने लगा उन्हें!

एक दिन शर्मा जी ने उन्हें यूंही उदास देखा तो कहा ‘‘इकबाल बाबू अगर बुरा माने तो एक बात कहूं कब तक यूं जिन्दगी चलेगी आप गुंजन के यहां ही क्यों न शिफ्ट हो जाते हैं, वहां कम से कम नाती नतनी के बीच जी बहला रहेगा‘‘।आखिर उन्होने भी घुमने के ख्याल से ही हैदराबाद का टिकट कटवा लिया था ये सोच कर कि अगर मन लग गया तो फिर वहीं शिफ्ट हो जाएंगे! दो दिन की थकन भरी यात्रा समाप्त कर के वे हैदराबाद गुंजन के धर पहूंचे, और उन्होने कांपते हाथों से डोरवेल बजाया तो एक पन्द्रह वर्षीय लड़के ने उन्हें दरवाजा पर देखते ही झुंझलाते हुए पूछा ‘‘हू आर यू‘‘. उन्होने हतप्रभ होकर कहा ‘‘ आइ एम योर गा्रंड पा माय सन‘‘. उसने बिना दरवाजा खोले ही यह कह कर चला गया ‘‘ओह वेट आइ एम कालिंग माॅम‘‘

गुंजन ने पिताजी को देखा तो विस्मय से भर गई। उसने मन ही मन सोचा ये अचानक कहां से आ गए? अचानक दरवाजा खोलते ही उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी क्यों आए कैसे आए बता तो दिया होता आदि आदि. मन ही मन कोसने लगे अपने परवरिश को प्रो0 साब क्या यही दिन देखने के लिए तुम्हें…! उन्होंने बस इतना ही कहा कि बेटी बहुत थक गया हूॅं मुझे एक गिलास ठंढा पानी दे दो और थोड़ी देर आराम करने दो फिर फुर्सत में मैं जुमसे बात करुंगा … गुंजन ने उन्हें पानी लाकर दे दिया। थोड़ी देर के विश्राम के बाद जब उनकी आंखें खुली तो उन्होने गुंजन को अपने पास पाया। उन्होने पानी पी ली और नम आंखों से बेटी की ओर देख कर कहा यदि तुम्हें कोई ऐतराज न हो तो मैं यहीं रह लेता तुम लोगों के साथ। गुंजन ने जो प्रत्युत्तर दिया वह सहन न कर सके प्रो0 साब.’=

फिर उन्होने मुआयना किया घर का गुंजन का भी कहना काफी हद तक सही था। महानगर में एक एम0 आई0 जी0 फ्लैट्स में जगह ही कितनी होती है जहां उनके जैसा एक्सट्रा लोग रह सके। आजकल घरों के नक्शे में वृद्व माता पिता के लिए अलग से कोई कमरा जो नहीं होता है, हाॅं सर्वेंट्स रुम जरुर होता है। शायद इसलीए ही बड़े शहरों में हर एक काॅलोनी के पास ही एक अदद वृद्वाश्रम खुल गए हैं। आजकल के बच्चों को भी दादी नानी की जरुरत नहीं रही इन्हें अपनी प्राइवेसी बहुत पसंद है। ये घंटे लगे रहेंगे नेट से उनकी बला से, पर किसी का दखल इन्हें बर्दास्त नहीं होता।

प्रो0 साब को यह देख कर बड़ी हैरानी होती कि बच्चे अपने अपने कमरे में कैद होकर दिन भर अपने लैपटाॅप में उलझे रहते कभी उन्होने उन्हें पढ़ते न देख था कागज कलम लेकर आखिरकर उनकी पढ़ाई आॅन लाइन जो होती थी। गुंजन की बेटी भी अब सयानी हो चुकी थी लेकिन सामान्य शिष्टाचार व नारी सुलभ हरकतें गौण थी। कुछ ही दिनों में उनका दम घुटने लगा उनके इस नए परिवेश में! गुंजन का रात दिन अपने पति से झगड़ना और दामाद जी का अपने प्रति उपेक्षा वे सहन न कर सके। आखिर में उन्होने वहां से जाने का निश्चल कर लिया! ‘‘ बड़े बेआबरु होकर निकले तेरे कूचे से हम ‘‘

प्रो0 साब वापस गांव आ गए यहीं उन्होने कुछ बच्चों को ट्यूशन देना शुरु कर दिया था ताकि उनका दिल बहलता रहे। क्मला बाई को उन्होने अपने निजी काम के लिए रख लिया था। सुबह शाम कमला उनके धर में झाड़ू पोंछा व उनके कपड़े द्यो दिया करती थी।साथ् ही नहाने के लिए पानी गर्म करना व तमाम काम जो उनकी सहुलियत के लिए था वह कर दिया करती थी ठीक जैसे वह उनकी बेटी हों। अब उनके बीच पिता पु़त्री का संबंद्य बन चुका था। आखिर कमला उनकी सेवा अपने पिता की तरह ही तो करती थी।घीरे घीरे वे कमला से खुलने लगे और उसे अपने अकेलेपन का साथी बना लिया। उनकी आपवीती जो उन पर गुजरती वे उससे जरुर साझा करते।कमला चुपचाप सुनती रहती। आद्यी बातें समझती तो आद्यी बातें उसके सिर से गुजर जाया करती थी।जैसे ही वह कहती ‘‘बाबू अहां कि कहै छथीन हम्मे नै समझै छीयै‘‘

प्रो0 साब बरस पड़ते अतः वह उनकी बात चुपचाप सुनने में ही अपनी भलाई समझती। प्रो0 साब कब के रिटायर हो चुके थे और उनका स्वास्थ्य भी अब दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था। गुंजन इस डर से कि कहीं फिर से न आ टपके कभी फोन नहीं करती। दिवाकर ने कई मर्तबा संदेश भिजवाया पापा से बात कर लिया करो लेकिन गुंजन ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। न तो कभी उसने पैसे भेजे न ही कोई खोज खबर ली। दिवाकर के फोन करने पर उसका वही नपा तुला जबाब होता था उन्हें किस बात की कमी है इतना लंबा चैड़ा बैंक बैलेंस है मेरी माॅं के सारे पैसे तो उन्हीं के पास है।

जब  प्रो0 साब अद्यिक बीमार रहने लगे तो एक दिन गुंजन आ धमकी और सीधे सीधे सारी वसीयत व सेविंग्स अपने नाम कर देने को कहा। प्रो0 साब पहले ही आहत थे बेटी के कृत्यों को देखकर हतप्रभ रह गए। कमला को उन्होने रो रो कर सब हाल बताया कि कैसे उसने जोर जर्बदस्ती करना चाहा यहां तक कि हथेलियों से उसने थप्पड़ भी लगाए थे . प्रो0 साब भी जिद पर अड़ गए. उन्होने गुंजन की एक न सुनी आस पड़ोस में जब बात फैलने लगी तो वह वहां से चली गई। मर्माहत होकर प्रो0 साब मुख्यमंत्री के जनता दरवार में गए और वहां उन्होने गुहार लगाई कि उनकी सारी जमा पूंजी को सामाजिक कल्याण के लिए सरकारी कोष में जमा किया जाए साथ ही अपनी बेटी के द्वारा प्रताड़ित होने की भी बात कही.

यह खबर आग की तरह फैल गई।एस0 डी0 ओ0 साब को उनकी सुरक्षा व देख रेख का जिम्मा दिया गया, इसलीए अब मुहल्ले में अक्सर लाल बत्ती गाड़ी दिखने लगी थी।
गुंजन को जब यह बात पता चली तो वह नंगे पांव दौड़ी आई पति के संग। इकलौती बारिश होने के कारण दावा ठोंक दिया उनकी संपत्ती पर फिर उसने ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया उसे हासिल करने के लिए… दबंग वकील को मुंह मांगी कीमत देकर कानूनन फैसला अपने पक्ष में करवा लिया। उसके दलील था कि ये सब पैसे उसकी माॅं के हैं उसके जीते जी वह किसी को नहीं देगी वह पैसे. एक लाख रुपए उनके श्राद्ध में होने वाले खर्च के लिए और एक लाख उनकी बिमारी पर होने वाले खर्च के लिए छोड़ दिया. बाकी सारे पैसे उनसे लिखवाकर चम्पत हो गई गुंजन। फिर उसने कभी पलट कर नहीं देखा अपने पिता को। अंतिम समय में प्रो0 साब पूर्ण रुप से दिवाकर पर आश्रित हो गए थे उसके अलावा उनका इस दुनियां में कोई न रहा। खाली समय में वो अपनी बेटी को जी भर कर कोसते और गालीयां देते। दिवाकर को भी गुंजन पर पूरा आक्रोश था‘‘ सेवा करे कोई मेवा खाए कोई‘‘

अपना अंत समय देखकर प्रो0 साब अपने जीवन का आकलन करते तो उन्हें बहुत दुःख होता उनका साहित्यकि मन जाग उठता वे अपनी जीवनी लिखने लगे थे खाली समय में! दिवाकर से वे मनुहार करते कि ‘‘ बेटा मेरा जीवन तो यूंही बीत गया हम अपने आने वाली पीढी को कुछ दे न सके इसका मलाल मुझे जीवन में सालता रहेगा इसलीए यह मेरी अंतिम इच्छा है कि यह पुस्तक तुम किसी प्रकाशक से मिलकर प्रकाशित करवा दो! कम से कम पुस्तकालय में ही यह वितरित हो जाता तो बच्चे पढते इसे‘‘आखिर एक मानव का टूट कर बिखर जाना कोई तो समझे उसे! दिवाकर तो पहले ही नाराज था गुंजन से अब बचा खुचा पैसा ऐसे किसी सनक की भेंट चढाना नहीे चाहता था। उसकी बीबी भी चिढी रहती थी ‘‘अरे हमारा भी परिवार है बच्चा है अपना जिन्दगी देखना है कि नहीं जो हम मुफत में सेवा करते चलेंगे हम कौनो समाज सेवक तो हैं नहीं ‘‘

जैसे जैसे उनका समय बीतता जा रहा था उनकी किताब छपवाने की इच्छा जोर पकड़ती जा रही थी। एक दिन दिवाकर की पत्नी मेरे पास आई वह जानती है कि मैं एक लेखिका हूॅं कहने लगी ‘‘ ऐ दीदी बताइये न ई बुढवा तो जिदे पकड़ कर बैठ गया है कि मेरी जीवनी छपवा दो उसका आत्मा इसी किताब पर अटका हुआ है जब तक छपेगा नहीं न ई बुढवा मरबो नै करेगा अब आप ही बताइये कुछ उपाय कैसे होगा ई सब‘‘ मैने एकाद्य प्रकाशक का पता लिख के दे दिया और कहा कि खर्चे कि चिंता मत किया करो राॅयल्टी आ जाएगी जिससे तुम्हारा खर्च आराम से निकल जाएगा लेकिन उनकी अंतिम इच्छा पूरी कर दो। लेकिन दिवाकर ने इसमें पैसा लगाना उचित नहीे समझा और उसने अनसुनी कर दी।

समय का कालचक्र घूमता जा रहा था प्रो0 साब का शरीर सूख कर कांटा हो गया था। वह नर कंकाल की भांति विस्तर पर पड़ गए थे। अब उनका सारा काम बिस्तर से ही होने लगा था। अब कमला का दायित्व और भी बढ़ गया था। दिवाकर की बीबी तो कभी झांकने भी नहीं जा पाती थी ऐसे में कमला को पूरी जिम्मेदारी से मामा की सेवा करनी थी। पिता तुल्य सम्मान देने के कारण उनका मल मुत्र भी साफ करने में उसे कोई संकोच नहीं होता था। उसकी इस तरह तन्मयता से सेवा करने के कारण काफी कृतज्ञ हो गए थे प्रो0 साब वे सोचते इसे तो मैने कुछ भी नहीं दिया न ही इसे कोई लालच है तो भी मेरी सेवा कितने जतन से करती है। ‘‘हे ईश्वर अगले जनम में यही बिटीया मोहे दीजौ‘‘

एक दिन दिवाकर को अपने पास बुलाया और कहा ‘‘ कम से कम दस हजार रुपये इस गरीब महिला को जरुर दे देना इसने मेरी जितनी सेवा की है उसके मुकाबले यह रकम बहुत कम है साथ ही घर में जितने भी सामान है वह तो तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं सो मेरे मरने के बाद सब उसे ही दे देना‘‘ दिवाकर ने कमला के पति को बुलाकर एक सादे कागज पर अंगुठा लगवाकर रख लिया कि रुपये और सामान इनके मरने के बाद मिल जाएंगे। दिवाकर की बीबी के तो कान खड़े हो गए उसने सोचा कि इससे पहले कि ये और किसी को कुछ दान में दे दे इसे अपने कब्जे में करना बहुत जरुरी है। अगले ही दिन अपने घर का कबाड बाला कमरा कमला से साफ करवाया और उन्हें अपने घर के उसी कमरे में शिफ्ट करवा दिया गया।उन पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी।
धीरे धीरे प्रो0 साब की आवाज भी जाती रही, वह निरीह प्राणी अपने जीवन की गाड़ी को किसी तरह घसीट घसीट कर खींच रहे थे जिसे न समय का पता था और न ही गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी थी। धीरे धीरे उन्होने खाना पीना सब बंद कर दिया था। एक दिन दिवाकर उनके कमरे में पहूंचा तो वहां घोर नीरवता छायी हुई थी इतनी शांति पहले उसने कभी नहीं देखी थी। उसने आवाज लगाई मामा ओ मामा कोई जबाब नहीं …

कोई ईशारा नहीं धड़कन अभी चल रही थी. दिवाकर ने घबराकर गुंजन को फोन मिलाया ‘‘अंतिम समय है मामा का दर्शन कर लो‘‘ गुंजन पहली फ्लाइट से आ गई थी. गुंजन को देखते ही उन्होने मुुह फेर लिया था एकदम से असहज हो गए थे प्रो0 साब . गुंजन ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी वह पास में ही अपने गांव चली गई। रात के दो बजे जब दिवाकर पानी पीने के लिए उनके कमरे के बगल से गुजरा तो सोचा मामा को देखता जाउं… वे एकटक उसे ही निहार रहे थे पास जाकर उसने उनका हाथ हिलाया तो वे एकतरफ लुढक गए…. दिवाकर ने कन्फर्म होने के लिए डा0 को बुलाया, डा0 ने नब्ज टटोली उनके खुले मुॅंह और उनकी निस्तेज पड़ी आंखों को बंद किया और डेथ नोट लिख दिया।

जीवन में ऐसी मैयत मैने कहीं नहीं देखी थी जहां रोने वाला कोई न था… हां कमला के रोने की आवाज जरुर मुहल्ले में गुंज रही थी। सुबह तक गुंजन भी पहूंच गई थी अपने पति के साथ अब सवाल था कि मुखाग्नि कौन देगा? हक तो दिवाकर का बनता था लेकिन यहां भी गुंजन की मनमर्जी चली उसने मुखाग्नि अपने पति से दिलवाया। श्राद्ध के लिए जो पैसे दिवाकर के पास पड़े थे उसीसे उसने धूमधाम से श्राद्ध कर्म किया। पंडितों को खूब दान दक्षिणा दिया गया. आखिर उनकी आत्मा को शांति जो पहुंचाना था….. गौ दान की गई ब्राहणों को ताकि पाप ताप कट सके।

सारे क्रियाकर्म समाप्त करके गुंजन वापस चली गई सदा के लिए कमला को घर के टूटे फूटे सामान दे दिये गये और काम की चीजें रख ली गई। पैसे……. वो तो अब भूलना पड़ेगा कमला को दिवाकर अब देने को तैयार नहीं है क्योंकि उसके पास अब कुछ खास बचा नहीं जो वह किसी और को दे सके…

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- sangsar.seema777@gmail.com आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

4 thoughts on “कहानी : ढलती सांझ

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत सोचने वाली कहानी है .

    • सीमा संगसार

      aabhar Gurmel singh Bhamra jee!

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत मार्मिक कहानी है. स्वार्थी संतान चाहे बेटा हो या बेटी अपने वृद्ध माँ बाप की मिट्टी पलीद कर देते हैं. धिक्कार !

    • सीमा संगसार

      tahe dil se shukriya singhal jee!

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