लघुकथा

कोमलता एक वर, कठोरता एक श्राप

एक सन्त बहुत बूढ़े हो गए। मरने का समय निकट आया तो उनके सभी शिष्य उपदेश सुनने और अन्तिम प्रणाम करने एकत्रित हुए।
उपदेश न देकर उन्होंने अपना मुँह खोला और शिष्यों से पूछा – ‘देखो इसमें दाँत है क्या?’ शिष्यों ने उत्तर दिया- ‘एक भी नहीं।’
दूसरी बार उन्होंने फिर मुँह खोला और पूछा – ‘देखो इसमें जीभ है क्या?’ सभी शिष्यों ने एक स्वर में उत्तर दिया – ‘हाँ- है – है।’
सन्त ने फिर पूछा – ‘अच्छा एक बात बताओ। जीभ जन्म से थी और मृत्यु तक रहेगी और दाँत पीछे उपजे और पहले चले गए। इसका क्या कारण है?’
इस प्रश्न का उत्तर किसी से भी न बन पड़ा।
सन्त ने कहा- ‘जीभ कोमल होती है इसलिए टिकी रही। दाँत कठोर थे इसलिए उखड़ गए।’
“मेरा एक ही उपदेश है- दांतों की तरह कठोर मत होना – जीभ की तरह मुलायम रहना। यह कह कर उनने अपनी आंखें मूँद ली।”

2 thoughts on “कोमलता एक वर, कठोरता एक श्राप

  • मनजीत कौर

    बहुत अच्छी लघु कथा भाई साहब |

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी बोधकथा है, भाई साहब.

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