कविता

तन्हाई

तन्हाई
आज भी देखती हूँ
जब मैँ तुम्हारा
व्हाइट शर्ट
सजीव हो उठते हो तुम
ठीक उस सफेद
झक्क कैनवास की तरह
जिसमेँ उकेरना चाहती हूँ
कई आकृतियाँ
कई रंग . . .
क्या उकेरुँ उसमेँ
अवसाद के काले रंग
या आड़ी तिरछी रेखाएँ
अकेलेपन के
जब साथ थे तुम
तब भी तन्हा थी मैँ
आज जब हो
मुझसे मीलोँ दूर
तब भी अकेली हुँ मैँ . . .
एकाकी होना
अपने आप मेँ अद्भुत है
भीड़ के हिस्सोँ से
अलग पहचान बनाना
भी तो तन्हाई है
इसका मतलब
ये तो नहीँ
अकेली हुँ मैँ
साथ हो तुम मेरे
जमाना भी साथ है मेरे
फिर भी हूँ मैँ अकेली
तुम्हारे विचारोँ से अलग
भीड़ के उस हिस्से से अलग
अलग है मेरी दुनियाँ
जहाँ शब्द गढ़ते हैँ मुझे
विचारोँ की अग्नि जलती है
साहित्य रुपी उस चूल्हे पर मैँ
संवेदनाओँ के भोजन पकाती हुँ मैँ
जिसे खाना तुम्हारी विवशता है
और मेरी भूख बढ़ती जाती है!!!

सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- sangsar.seema777@gmail.com आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

One thought on “तन्हाई

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता, सीमा जी.

Comments are closed.