कविता

किनारे की तलाश में

वह आसमान से गिरा था। 

समुद्र में तैरते हुए उसे याद ही नहीं आया

कि मौत हर वक्त उसके आस पास ही होगी। 

उसने चाँद को देखा वह भी उसी तरह आसमान में तैर रहा था,

उसके पास भी धरती का कोई अता पता नहीं था।

र चाँद के पास सूरज की सराय में पनाह तो थी

जहाँ वह रोज़ पुनर्नवा होता था।

आदमी तो यहाँ मौत को चकमा देकर ही पहुंचा था।

समुद्र को डर था कि वह आदमी कहीं मछली न बन जाए।

तैरते हुए उस आदमी को ज़िंदगी की नहीं किनारे की तलाश थी।

ज़िंदगी तो कभी भी किसी को आसमान से धकेल सकती है।

क्यों यही सच है न, महामाया!

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——– राजेश्वर वशिष्ठ 

2 thoughts on “किनारे की तलाश में

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    राजेश्वर जी , कविता बहुत अच्छी लगी .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत गहरा चिंतन ! बधाई, राजेश्वर जी.

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