सामाजिक

देश की अवनति का कारण

मैं अनेक बार यह सोचता हूँ की वैदिक विचारधारा को मानने वाला यह सुन्दर देश आर्यव्रत अनेक शताब्दियों तक कैसे गुलाम बना। क्या कारण था जो संसार को मार्ग दिखाने वाली यह प्राचीन आर्य सभ्यता स्वयं भटक गई। अनुसन्धान करने पर जो कारण मिला उसे एक शब्द में आप “निराशावाद” कह सकते हैं। एक उदहारण से निराशावाद को समझने का प्रयास करते हैं।

वेद में हमारे शरीर का सुन्दर वर्णन मिलता हैं। अथर्ववेद के १०/२/३१ मंत्र में इस शरीर को ८ चक्रों से रक्षा करने वाला  (यम, नियम से समाधी तक) और ९ द्वार (दो आँख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक मूत्र और एक गुदा) से आवागमन करने वाला कहा गया हैं, जिसके भीतर सुवर्णमय कोष में अनेक बलों से युक्त तीन प्रकार की गति (ज्ञान, कर्म और उपासना ) करने वाली चेतन आत्मा हैं। इस जीवात्मा के भीतर  और बाहर परमात्मा हैं और उसी परमात्मा को योगी जन साक्षात करते हैं। शरीर का यह अलंकारिक वर्णन राज्य विस्तार एवं नगर प्रबंधन का भी सन्देश देता हैं। शरीर के समान राज्य की भी रक्षा की जाये। वैदिक अध्यात्मवाद जिस प्रकार शरीर को त्यागने का आदेश नहीं देता वैसे ही नगरों को भी त्यागने के स्थान पर उन्हें सुरक्षित एवं स्वर्गसमान बनाने का सन्देश देता हैं। वेद  बुद्धि को दीर्घ  जीवन प्राप्त करके सुखपूर्वक रहने की प्रेरणा देते हैं।  वेद शरीर को अभ्युदय एवं जगत को अनुष्ठान हेतु मानते थे। वैदिक ऋषि शरीर को ऋषियों का पवित्र आश्रम, देवों का रम्य मंदिर, ब्रह्मा का अपराजित मंदिर मानते थे।

महात्मा बुद्ध के काल में शरीर को पीप-विष्ठा-मूत्र का गोला कहा जाने लगा। विश्व को दुःख,असार, त्याग्य,हेय, निस्सार, कष्ठदायी माना जाने लगा और अकर्मयता एवं जगत के त्याग का भाव दृढ़ होने लगा। कालांतर में उपनिषदों और गीता में यही जगतदुखवाद का भाव लाद दिया गया। भारतियों की इच्छा जगत को स्वर्ग बनाने के स्थान पर त्याग करने की होने लगी। अकर्मयता के साथ निराशावाद घर करने लगी।  इससे यह भावना दृढ़ हुई की इस दुखमय संसार में मलेच्छ राज्य करे चाहे कोई और करे हमें तो उसका त्याग ही करना हैं। ऐसे विचार जिस देश में फैले हो वह देश सैकड़ों वर्षों क्या हज़ारों वर्षों तक भी पराधीन रहे तो क्या आश्चर्य की बात हैं।

जब तक इस प्रकार की निराशावादी विचारों को भारतीय अपने मस्तिष्क में स्थान देते रहेंगे तब तक भारत कभी उन्नति नहीं कर सकता। अगर कोई मुझसे पूछे की स्वामी दयानंद की हिन्दू समाज को क्या देन हैं तो मेरा उत्तर यही हैं की स्वामी दयानंद इस घोर निराशावादी विचारधारा के सबसे बड़े शत्रु थे और प्रगतिशील, निष्पक्ष एवं संकीर्ण मानसिक विचारों के मुक्ति प्रदाता थे। आईये इस निराशावाद के  चक्र से निकले एवं आध्यात्मिक, आधिभौतिक उन्नति करते हुए संसार में फिर से आर्यावर्त का नाम रोशन करे।

डॉ विवेक आर्य

2 thoughts on “देश की अवनति का कारण

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    डाक्टर विवेक जी , लेख बहुत अच्छा लगा , आप ने हमारी कम्ज़ोरीओन के कारण लिखे हैं जो बिलकुल सही हैं , लेकिन इस में और भी बहुत से कारण हैं . एक तो जैसे अँगरेज़ धीरे धीरे हमारी सब कम्ज़ोरिओ को जान गए थे इसी तरह मुग़ल भी धीरे धीरे भारत में वस् गए थे और उन के गुप्तचर सब कुछ देख कर अपने देश के बादशाहों को ख़बरें देते रहे और हमारी कम्ज़ोरिओन का उनको गियान हो गिया था . दुसरे मीर कासम के हमले के बाद उनके हौसले बुलंद हो गए थे . हमारे देश के शासक बेखबर हो गए थे , ख़ास कर अशोक के बाद के भी जितने शासक आये उन्होंने भारत की उन्ती पर तो बहुत कुछ किया , विद्या के क्षेत्र में बहुत पैसा खर्च किया , नालंदा यूनिवर्सिटी जैसे विश्विदियाले काएम किये , हिऊंसांग और फाहिआनं जैसे चीनी इस की गवाही देते हैं . गलती यह हुई कि डिफैंस को इग्नोर किया गिया , सारा पैसा खजुराहो जैसे मंदिरों पर ही खर्च कर दिया , लोग आयाश होने शुरू हो गए थे , सोम रस और सुरा का सेवन करने लगे थे , कामसूत्र जैसे ग्रन्थ लिखने से एक ही बात सामने आती है कि हम आज वैस्टर्न नेशंज़ की तरह एडवांस हो गए थे . सब से बुरी बात जो हुई वोह था जात पात का कोहड जिस ने भारत की एकता को बहुत नुक्सान दिया जो आज तक भी है . जो लोग दलितों के साए से भी दूर भागते थे वोह कैसे उन से कोई काम ले सकते थे ? आज भी हम बंटे हुए हैं . है कोई ऐसा संत या महात्मा जिस ने कभी कोशिश की हो कि भारत में एक हिन्दू समाज हो जिस में सभी बराबर हों , नहीं यह हो ही नहीं सकता , हमारी कम्ज़ोरिओन की वजह से मुट्टी भर हमलावरों ने देश को पैरों तले रौंद डाला . कहते हैं हम इतहास से सीखते हैं लेकिन हम अभी तक नहीं सीख सके .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. बुद्ध के उपदेश सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, जैसे अहिंसा, त्याग, प्रेम आदि, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर व्यर्थ सिद्ध होते हैं. शायद इसी कारण बौद्ध धर्म भारत में अपना महत्त्व खो बैठा था और बुद्ध शब्द से मूर्खता का पर्यायवाची शब्द ‘बुद्धू’ बना लिया गया. जब तक वैदिक संस्कृति की ओर नहीं लौटा जायेगा, तब तक देश की वास्तविक उन्नति नहीं हो सकती.

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