उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (तेंतालीसवीं कड़ी)

दुर्योधन के अशिष्टतापूर्वक राजसभा कक्ष से बाहर चले जाने पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। यह उसकी जिन्दगी में पहला अवसर नहीं था, जब वह असभ्यतापूर्वक सभा से बाहर निकल गया हो अथवा बड़ों के सामने से चला गया हो। अपनी बात पर दबाब डालने के लिए और अपना हठ मनवाने के लिए दुर्योधन प्रायः ऐसा किया करता था। उसके ऐसा करते ही धृतराष्ट्र का पुत्रमोह सतह पर आ जाता था और वह दुर्योधन को मनाने के लिए किसी न किसी को भेज देते थे। उस दिन भी यही हुआ। जैसे ही दुर्योधन राजसभा से बाहर गया, धृतराष्ट्र बहुत दुःखी हो गये और विदुर से कहने लगे कि किसी तरह दुर्योधन को मनाकर लाओ।

उधर दुर्योधन और उसके साथी शकुनि, कर्ण और दुःशासन बाहर जाकर किसी कक्ष में आपस में मंत्रणा कर रहे थे। उनका यह स्पष्ट विचार बन गया था कि किसी तरह कृष्ण को बंदी बना लेना है। उन्होंने यह सोचा कि यदि कृष्ण बंदी हो जायें, तो पांडवों की शक्ति लगभग समाप्त हो जायेगी, क्योंकि वे कृष्ण के सहारे ही युद्ध करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने राजसभा के बाहर जाते समय ही कृष्ण को बंदी करने की योजना बना ली थी और पाश फेंकने वाले व्यक्तियों को बुला रखा था। इतना ही नहीं उन्होंने उनके लिए राजसभा के योग्य वस्त्र भी उपलब्ध करा दिये थे, ताकि वे राजसभा के ही सदस्य दिखायी पड़ें और किसी को सन्देह न हो कि वे पाश फेंकने वाले व्यक्ति हैं।

दुर्योधन के बाहर चले जाने के बाद कृष्ण ने धृतराष्ट्र की ओर मुख किया। वे बोले- ‘महाराज, दुर्योधन के प्रति इतनी कठोर बातें कहने के लिए मुझे क्षमा करें। आपका यह पुत्र पूरी तरह काल के वशीभूत हो चुका है। वह युद्ध पिपासु है। वह नहीं जानता कि इस युद्ध में न केवल वह स्वयं नष्ट हो जाएगा, बल्कि आपके सारे वंश को भी नष्ट करा देगा।’ कृष्ण की इस बात पर सभी उपस्थित राजसभा सदस्यों ने सहमति में सिर हिलाया।

कृष्ण ने आगे कहा- ‘महाराज, यह शास्त्रों का वचन है कि राष्ट्र को बचाने के लिए समुदाय का, समुदाय को बचाने के लिए परिवार का और परिवार को बचाने के लिए व्यक्ति का त्याग कर देना चाहिए। इस समय तो आपके इस पुत्र के कारण आपके परिवार, वंश और समस्त राज्य पर संकट आ गया है, इसलिए आपको दुर्योधन का त्याग कर देना चाहिए।

‘महाराज, आपको स्मरण होगा कि दुर्योधन के जन्म के समय के लक्षणों को देखकर महामंत्री विदुर ने उसी समय आपको दुर्योधन को त्याग देने का परामर्श दिया था, क्योंकि उनके अनुसार यह संतान सम्पूर्ण वंश के सर्वनाश का कारण बनेगी। परन्तु आपने पुत्र-मोह में उस आग्रह को स्वीकार नहीं किया। अब वह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो रही है। आपका यह पुत्र समस्त राज्य और वंश के विनाश का वाहक बन गया है। अब समय आ गया है कि आप उसका त्याग कर दें। यदि अभी भी आप उसका त्याग कर देते हैं तो इस विनाश से बच सकते हैं।’

इसके साथ ही कृष्ण ने अपना उदाहरण दिया- ‘महाराज, आप जानते हैं कि मेरे मामा कंस अपने पिता उग्रसेन को बंदी बनाकर मथुरा नगरी के शासक बन गये थे। उनके अत्याचारी शासन से सभी लोग त्रस्त थे। इसलिए मैंने अपने पिता तथा अन्य परिवारी जनों के परामर्श से अपने सगे मामा का वध किया था और मथुरा को उसके अन्यायी शासन से मुक्त कराया था।

‘इसी प्रकार आप अपने पुत्र से मुक्ति पा लीजिए। मैं आपको उसका वध करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। आप उसको बंदी बनाकर या तो अपने बंदी गृह में रखिये या पांडवों को सौंप दीजिए। इससे आप सम्पूर्ण आर्यावर्त को विनाश से बचा सकते हैं और पांडवों के प्रति किये गये अन्याय को समाप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त आपके सामने सर्वनाश से बचने का और कोई मार्ग नहीं है।’

कृष्ण की इस सलाह से राजसभा में गहरा सन्नाटा छा गया। तभी किसी के खांसने का स्वर सुनाई दिया। सभी ने इसे सामान्य माना, लेकिन कृष्ण ने सात्यकि के स्वर को पहचान लिया। खांसने की विशेष विधि से वे समझ गये कि सात्यकि ने मुझे संकेत भेजा है।

सजग होकर कृष्ण ने राजसभा के द्वार की ओर दृष्टि डाली। उन्होंने देखा कि उसी समय एक संदिग्ध चरित्र का व्यक्ति राजसभा में घुसा था और एक कोने में एक आसन पर बैठ गया था। हालांकि उसने राजसभा के लिए उपयुक्त वेशभूषा में स्वयं को छिपाने का पूरा प्रयास किया था, लेकिन उसमें असफल रहा था। उसको देखकर कृष्ण को यह समझने में देर नहीं लगी कि यह व्यक्ति जंगली पशुओं को पकड़ने का कार्य करता होगा। तुरंत ही कृष्ण ने एक विशेष प्रकार से खंखारकर सात्यकि को संकेत भेज दिया कि उसका संकेत उन्होंने समझ लिया है। इस बात को राजसभा में और कोई नहीं समझ पाया।

पितामह भीष्म ने दुर्योधन को बंदी बनाने की कृष्ण की सलाह का समर्थन किया। उन्होंने स्पष्ट कहा- ‘महाराज, आपका यह पुत्र अपनी सीमाओं से बहुत बाहर निकल गया है और यदि अब भी इसको न रोका गया, तो फिर आपके सामने रोने और पश्चाताप करने के अलावा कुछ नहीं बचेगा। इसलिए हमें वासुदेव की सलाह मान लेनी चाहिए और दुर्योधन को उसके साथियों सहित बंदी बनाकर पांडवों को सौंप देना चाहिए।’

विदुर और द्रोण ने भी भीष्म की बात का समर्थन किया। लेकिन धृतराष्ट्र अपने पुत्र-मोह से बाहर नहीं निकल सके। उन्होंने विदुर से कहा- ‘विदुर, तुम जाकर दुर्योधन को ले आओ। हम उसको समझा देंगे।’ विवश होकर विदुर बाहर गये और थोड़ी देर बाद दुर्योधन को साथ लिये आते हुए दिखायी दिये। उनके पीछे-पीछे कर्ण, शकुनि और दुःशासन भी आ रहे थे। वे राजसभा में अपने अपने स्थान पर पहुंचकर आसन पर बैठ गये। उनके पीछे एक और व्यक्ति था, जो कोने में जाकर बैठ गया।

तभी कृष्ण को सात्यकि के दो बार खांसने का स्वर सुनाई दिया। यह खतरे का स्पष्ट संकेत था जिसे केवल कृष्ण समझ पाये। सात्यकि अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से कर रहे थे। कृष्ण को यह समझने में देर नहीं लगी कि जंगली पशुओं को पकड़ने वाला दूसरा व्यक्ति भी राजसभा में दूसरी ओर आकर बैठ गया है। उन्होंने भी उसी प्रकार दो बार खांसकर संकेत समझ लेने का संकेत सात्यकि तक भेज दिया।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

2 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (तेंतालीसवीं कड़ी)

  • विजय भाई , इस से एक बात साफ़ है कि कुछ लोग पुत्र मोह के कारण अपना घर बर्बाद कर लेते हैं . उनको पता भी होता है कि पुत्र बर्बादी की और बड रहा है फिर भी वोह अपने पुत्र का ही पक्ष लेते हैं , ध्रित्राश्टर एक तो अँधा फिर बूडा और सभ से बुरी बात ताकत के नशे में अँधा बेटा . वोह बेटे से कहता भी , तो किया जाने उनकी ही बेइजती कर देता . आज के ज़माने में भी देखें तो एक बदमाश से सभी डरते रहते हैं लेकिन कभी वक्त आ जाता है जब कोई बहादर पैदा हो जाता है जो सामने आ कर उनसे लोहा लेने के लिए तैयार हो जाता है . आज के ज़माने में भी बदमाशों के कुछ चमचे होते हैं जैसे शकुनी दुहसासन और कर्ण दुर्योधन के चमचे थे जो दुर्योधन की हर बुराई में उन का साथ देते थे . एक बात है कि दुर्योधन ने कृषन की शक्ति को भी under estimate किया , इस लिए अब कुछ बचा ही नहीं था कि समझौता हो सके .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. आपने बिल्कुल सत्य कहा. दुर्योधन को कर्ण पर सबसे अधिक विश्वास था. उसी के बल पर वह युद्ध की रट लगाये हुए था.

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