हास्य व्यंग्य

हास्य-व्यंग्य : अब हम नंगे ही जायेंगे

प्रतीक्षा करना भारतीयों का राष्ट्रीय गुणधर्म है। यदि लंदन की सड़क पर भी आपको इंतज़ार की मुद्रा में कोई व्यक्ति दिख जाए, तो निश्चित रूप से कोई भारतीय ही होगा। होश संभालने से लेकर अब तक मैंने प्रत्येक भारतीय को किसी न किसी के इंतज़ार में डूबा पाया है।

हमारी नानी जी थीं। बड़ी भक्त हृदया। सारी उम्र कहती रहीं कि भगवान आनेवाले हैं। अंत में भगवान ने अपने पास बुला लिया, पर खुद नहीं आए। और इधर दो घंटे के लंबे इंतज़ार के बाद दुखी मजनू अब रूठने का मूड बना चुका है। पिछले चुनाव में पटकनी खाए नेताजी के कान अब अगले चुनाव का शंखनाद सुनने को बेकरार है। किसानों की आँखों में बरसात की प्रतीक्षा करते-करते बाढ़ आ गयी पर आसमान ने अब तक बादलों का चोला धारण नहीं किया। प्लेटफाॅर्म पर खड़े यात्रियों की गरदनेें और निगाहें नाच-नाचकर सुस्त हो गयीं पर ट्रेनों ने हठीली मेहबूबा के समान अपने देरी से आने का लक्षण न छोड़ा।

परीक्षा की घोषणा करने करने में विश्वविद्यालय नई दुल्हन के समान नखरे कर रहा है और होनहार विद्यार्थी के अरमान, कलेक्टर बनने के, दिल में दण्ड पेल रहे हैं। पड़ोसी के घर आठ-आठ मोमबत्तियाँ जल चुकीं हैं पर कुल का चिराग अब तक नहीं टिमटिमा रह। वे अब भी प्रयासरत हैं। वेतन आयोग अपनी सिफारिशें दे चुका, धनतेरस भी आ चुकी पर, लक्ष्मी जी नये रूप, नये कलेवर में नहीं पहुँची। पहली बेंच पर बैठकर फिल्म देखता हुआ कल्लू परेशान है कि आधी पिक्चर निकल गई लेकिन नायिका ने अब तक झरने के नीचे नहीं नहाया। गाँववाले बड़ी हसरत भरी निगाहों से चौराहे पर पाँच साल से लगे नल को निहारते हैं कि आज नहीं तो कल इसमें से जीवन की एकाद बूँद टपकेगी। कहने का मतलब सब ‘होनेवाला है’ हो कुछ नहीं रहा है। हो रही है तो, बस देरी, विलंब, और लेट।

हमारे देश की सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि यहाँ समस्या को छोड़कर कोई समय पर नहीं आता। समस्या भी समय पर नहीं आती। समय से पहले आ जाती है। भारतीय आदमी बस एक बात में पंक्च्युअल है- लेट होने में। देरी करना, लेट होना, विलंब करना आज हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है। एक बात तो गाँठ बाँँध लीजिए कि इस देश का आदमी किसी देश की, कंपनी की घड़ी कहीं भी पहन ले, पर वह घड़ी टाईम हमेशा ‘इंडियन’ ही दर्शाएगी। हाई स्कूल में अघ्ययन करते समय मैंने पढ़ा था कि ग्रीनविच मीन टाईम और इंडियन स्टैण्र्डड टाईम में साढ़े पाँच घण्टे का अंतर होता है। लेकिन इंडियन स्टेण्डर्ड टाइम और हिन्दुस्तानी टाइम में कुछ से लेकर कई घंटों का अंतर होता है। हमारे यहाँ लोग भले ही अंगूठा छाप हों, भारतीय मानक समय को हिन्दुस्तानी टाइम में बदलने में माहिर होते हैं।

भारत में समय का पाबंद होना सामाजिक अपराध है। यहाँ पर समय पर काम करनेवाला या तो पागल होता है या बेकार या फिर भोंदू। कहीं भी देरी से पहुँचना, विलंब से कार्य करना ‘सोशल स्टेटस’ की निशानी है। देरी से पहुँचना आज गौरव का विषय है और समय से पहुँचना बेवकूफी की निशानी। इस संदर्भ में हम बड़े नालायक रहे हैं। कई बार हम समय पहुँचकर स्वयं को मूर्खाधिराज के पद का उम्मीदवार स्वीकारने को तैयार हैं। हर बार यह सोचकर जाते हैं कि पहले से पहुँचे लोग हमें देखकर नमस्कार करेंगे। हमसे हाथ मिलाकर, देर हो जाने का कारण पूछेंगे। हमें देखकर हीन भावना से ग्रस्त हो जाएंगे कि- ‘देखो ये कितना बड़ा आदमी है जो इतनी देर से आया है, और हम टुच्चे, दो घंटे पहले समय पर आकर अपनी ऐसी-तैसी करवा रहे हैं।’ पर यकीन मानिए, हर बार पाँसा उल्टा ही पड़ता है।

एक दिन तो हद ही हो गयी। उस दिन हम आदतानुसार निर्धारित समय पर पहुँच गए। शेष मेहमान वही हिन्दुस्तानी टाइम का पीछा करते हुए, एक-दो घंटे देर से आये। मजबूरन हमें मेजबान के साथ घरेलूू काम करवाना पड़ा। बल्कि यूं कहिए, एक आदर्श मेहमान के पुरस्कार में रूप में हमें उस दिन खाना भी देर से नसीब हुआ। क्योंकि एक ओर तो अन्य देर से आनेवाले मेहमान हमें मेजबान का रिश्तेदार समझ कर काम बताते रहे और दूसरी ओर मेजबान महोदय ने उस दिन हमारी योग्यता का घरेलू उपयोग कर डाला, अपना घनिष्ठ मित्र समझ कर। हम समय पर जो पहुँच गये थे।

भूख के मारे पेट में बल पड़ गये थे। दिमाग अलग खराब हो गया था। हमारे एक अंतरंग मित्र हमारी पीड़ा को भाँप गये। उनके उपदेश ने हमारी आँखें खोल दी- ‘देखिए शरद जी, आप ठहरे साहित्यकार आदमी। अभी-अभी उगे व्यंग्यकार। व्यंग्य के खेत में उगी, खरपतवार। आपको आपकी भाषा में समझाते हैं भैया! जब हमाम में सब नंगे हो ना, तो वहाँ सूट या शेरवानी पहन कर जाना अशिष्टता ही नहीं बेवकूफी भी है, समझे?’

अब उनकी बात हमारी समझ में आ गयी है और आज ही से हमने अपनी बनियान उतार कर रख ली है कि जहाँ भी जाएँगे नंगे ही जाएँगें।

One thought on “हास्य-व्यंग्य : अब हम नंगे ही जायेंगे

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने भारतीयों की लेटलतीफी पर अच्छा व्यंग्य किया है. मुझे भी कहीं देर से जाना अच्छा नहीं लगता, पर आपके बताये कारणों से ही देर से जाना पड़ता है.

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