कविता

दिलों की दूरियाँ

 

पहले चलती थी पैसेंजर ट्रेन- आवाज आती थी,
गाड़ी चलेगी तो पहुंचेगें,
फिर आई एक्सप्रेस ट्रेन- यात्री बोले,
गाड़ी चली है तो पहुँच ही जाएँगें,
फिर आई राजधानी एक्सप्रेस, यात्रीगण बोलें,
गाड़ी अभी चले- अभी पहुँचें,
जब ममता ने चलाई दुरुंतों एक्सप्रेस,
कम हो गयी दूरियाँ शहरों में,
अब आएगी बुलेट ट्रेन, लोग बोले,
“ जल्दी आ- जल्दी आ”,
दूर कर लोगो के दिलों के फासले,
दिन अब अच्छे ,आयेंगे 
इसमे कोई दो राय नहीं –
दिलों के फासले,मिट जायेंगें, 
 
 
दूरियाँ कम   होंगी ट्रेन की रफ्तार बढ़ा के,
दूरियाँ कम  होंगी इक दूजे का खून बहा के, ,
अगर मिट जाये रिश्तों मेँ नफ़रतों की,आग 
खत्म हो जाएंगे धर्म ,जात-पात के फसाद, 
हल हो जाएगें ज़मीन जायदाद  के भी मसले,
कम हो जायेंगे अमीर-गरीब मे फासले,
दूर होगी भूखमरी बेकारी,और बेहाली, 
हर तरफ होगी हरियाली और खुशहाली,
हम सब  प्रगति की राह पर होंगें अग्रसर,
आतंकवादियों की कोशिशें होगीं बेअसर,  
 
 
 
ईश्वर ने बनाया हम सब को एक समान,
फिर क्यों जात-पात, काले-गोरे से पहचान , 
सब को फिर वापिस,  जाना है उसके पास–
एक दिन,  बिन धन दौलत बिन सामान,
फिर क्यों नहीं होता सबका बराबर सम्मान,
क्यों अमीरों-गरीबों के लिए अलग प्रावधान,
सब के लिए खुले हों उच्च चिकित्सा के अस्पताल,
क्यों अमीर को मिले सब, गरीब ना हो कोई उपचार?
गरीब करे हर दिन अपने  खुदा को फरियाद,
अमीर पाये सब-कुछ कर नोटो की बरसात,
ईश्वर ने ऐसा तो नही रचा था संसार,
जब इंसान है तो कर इंसान से प्यार,
कर दुनियाँ मे दोस्ती और अमन का प्रचार,
यही है हमारे सभी  धार्मिक-ग्रन्थों का सार.—अरविन्द कुमार, 

 

 

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया जन्म दिन --१४/२/१९४९, टेक्सटाइल इंजीनियर , प्राइवेट कम्पनी में जनरल मेनेजर मो. 9855022670, 9855047845

One thought on “दिलों की दूरियाँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता, अरविन्द जी.

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