हास्य व्यंग्य

हास्य व्यंग्य : भैंस का अंगूठा

थानेदार साहब को भैंस का दूध बहुुत पसंद था। वे अपना अपमान तो सह सकते थे, पर भैंसों की शान में कोई कुछ कहे यह उन्हें बिल्कुल पसंद न था। उनके शब्दकोश में गाय यदि माता थी तो भैंस-दादी। गाय टू स्टार थी तो भैंस थ्री। जब कोई कहता-काला अक्षर भैंस बराबर, तो पारा सातवें आसमान पर पहुँच जाता।

पर देखिए, तकदीर की बात। जिस इलाके के वे माई-बाप थे, वह इलाका भैंसों का स्वर्ग था। जैसी भैंसें वहाँ थीं वैसी अब तक उन्होंने न देखी थीं, न सुनी थीं-काली-काली, सुदंर-सुंदर। किसी के सींग गोल अंदर की ओर घूमे हुए, तो किसी के लंबे कमानीदार। लगता टीपू और शिवाजी महाराज की दो तलवारें साथ-साथ रखी हैं। कुछ भैंसों की खोपड़ी पर सींग इतने छोटे थे कि लगता उन्होंने निकलने की सोची और दुनिया का आतंकवादी नजारा देखकर अपने को छिपा लिया। बेचारे कहाँ छोटे-छोटे सींग और कहाँ एके-47 और बम गोले। पर थानेदार साहब खुश थे। कुछ भैंसों को देखकर और कुछ उनकी खूबसूरती को। पर जहाँ सुख होता है, वहीं दुख भी। बात यह थी कि उस इलाके भैंसों को अपनी खूबसूरती का भान था, जिसने उनके भीतर असामाजिक वृत्ति भर दी थी। कहीं किसी की बाड़ी उजाड़ दी तो, कहीं किसी राह चलते किसी पर अपनी गोबर भरी दुम झाड़ दी। कभी-कभी श्वेत वस्त्रधारी को देखकर अपना कीचड़ से सना शरीर रगड़ देतीं और कभी अपने सींग से किसी को घायल करने से नहीं चूकतीं।

एक दिन वे गश्त पर निकले तो भैंसें सड़क पर धरना दिए बैठी थीं। साहब हाॅर्न बजा-बजाकर परेशान, पर वे हैं कि टस से मस न होती थी। तभी किसी ने फिकरा कसा दिया-भैंस के आगे बीन बजाये, भैंस खड़ी पगुराए। भैंस का अपमान! भैंस की समझ पर प्रश्न चिह्न!! बस तभी उन्होंने फैसला कर लिया कि भैंसों के लिए भी साक्षरता अभियान चलाया जाएगा। उनका तर्क था कि जिस भैंस का दूध पीकर मानव बुद्धिमान होने का दम भरता है, वह कैसे बेअक्ल हो सकती है? ऊपर से पुलिस दिमाग कुछ अधिक चल गया। सोचा भैंस साक्षर हो जाएगी तो अपराध नहीं करेगी। लोग भी कितने बेवकूफ हैं, भैंस के दूध का दोहन करते उसके दिमाग और प्रतिभा का नहीं।

दूसरे दिन से उस गाँव का वातावरण देखने लायक था। दिन निकलते ही गाँव की सारी भैंसें बस्ता लटकाकर चारागाह की ओर चल पड़तीं। चरवाहे पर एक शिक्षाकर्मी ब्लेक-बोर्ड लिए बैठा रहता और भैंसों को सीखाता-‘ग’, गधे का, उ-उल्लू का। भैंस भी भैंस थी, इंसान नहीं। सोच लिया था-भैंस ही रहेंगी, जो भी हो। कुछ दिनों में अभियान पूर्ण हुआ। भैंसे साक्षर हुईं, शाायद और समझदार भी। उनका मालिक जब उन्हें चारा देता तो वे कहतीं-ठैंकू। दूध दोहते समय लात लग जाता तो कहतीं-सारी। रंभाती-गुडमार्निंग और गुडइवनिंग में। राम-राम कहना भूल गयीं थीं। समझदार हो गयी थीं, अंग्रेजी जो बोलने लगीं थीं।

पर कहा गया है न, बंदर कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाए कुलाटी मारना नहीं छोड़ता। आदतानुसार एक भैंस को दादागिरी का कीड़ा काटा और उसने अपना सींग, एक बच्चे के पेट में घोंप दिया। मामला थानेदार के पास पहुँचा। पहले तो उन्हें यकीन न हुआ। उन्होंने शंका व्यक्त की, जो भी हो भैंस और मालिक दोनो का बुलावा हुआ।
”सींग किसने मारा?“ उन्होंने पूछा।
”साहब भैंस ने।“ मालिक बोला।
”तुम चुप रहा। मैंने तुमसे पूछा? जिसने मारा, उसे बोलने दो।“
”साहब भैंस भी भला बोलती है?“
”खामोश! यह गांव की प न आ रहा था। किसका सिर पीटे? किसी तरह मामला संभालते हुए बोला- “साहब ये आज नहीं बोलेगी। इसका गला खराब है।“
”नालायक! भैंस का गला खराब क्यों न होगा, तूने उसके गले में रस्सी जो बाध रखी है। खोल उसे साऽऽ..।“ थानेदार के भीतर का भैंस प्रेम और थानेदारपन एक साथ जागा। उन्होंने जैसे-तैसे कुछ अपने दाने-पानी कर इंतेजाम कर मामला निबटाया और कहा- ”चलो यहा हस्ताक्षर करो।“ भैंस का मालिक कलम लेकर आगे बढ़ा।
”अबे उल्लू तू नहीं, भैंस करेगी। थानेदार साहब गुर्राए।“
”साहब, उससे नहीं बनेगा।“
”क्यों? क्या तूने उसे पढ़ने नहीं भेजा था?“
”भेजा था साहब, पर भैंस है न, इसलिए भूल गयी।“
मालिक का जवाब सुनकर थानेदार दुखी हुआ, बोला- “ठीक है, उससे कहो कि अंगूठा लगाए।“
थानेदार की बात सुनकर भैंस ने अपने मालिक के कान में कुछ कहा।
”अब क्या हुआ? क्या बात है?“
”साहब!” मालिक ने डरते-डरते कहा- “ये पूछ रही है अंगूठा दाएँ हाथ या बाएँ हाथ का?“

One thought on “हास्य व्यंग्य : भैंस का अंगूठा

  • विजय कुमार सिंघल

    हा…हा…हा….. करारा व्यंग्य !

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