कविता

पितृपक्ष

हुआ खत्म पितृपक्ष
अब नवरात्री आई है
कर पित्रों की पूजा
माता की बारी आई है

पितृपक्ष में खिला ब्राह्मणों को
सोचते कमाया पुण्य है
नवरात्री में सजाकर मंदिर
खिलाकर लंगर लोगों को
दिखाया अपना धर्म है

पर जो जीते जी माँ-बाप
की कर के अवहेलना
उन्हें दुत्कारते हैं
क्या सच में श्राद्ध कर
उन्हीं माँ-बाप का वो
आर्शिवाद वो पाते हैं

ज़रा सा संभल कर
पैरों पर खडे क्या हुए
वही अंगुली पकड़कर
चलने वाले बच्चे आज
माँ-बाप को आँख दिखा
उन्हें गलत बताते हैं
क्या तर्पण कर के
वही बच्चे उनकी आत्मा
को शांती पहुंचाते हैं

जो आदर न करते हैं
माँ का अपने घर में
कहां वो मंदिरों में
कर के आरती
पुण्य पाते हैं

न सफल होगी कभी
तुम्हारी यहा यह दान दक्षिणा
गर जीते जी तुमने
माँ-बाप का न
किया आदर है ।
प्रिया

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - priyavachhani26@gmail.com

4 thoughts on “पितृपक्ष

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता, प्रिया जी. आपने सही विचार प्रकट किये हैं. जीवित माता पिता का तिरस्कार करने वाले महापापी हैं.

    • प्रिया वच्छानी

      शुक्रीया विजय जी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    प्रिय बहन, अक्सर मेरे दोस्त रिश्तेदार मुझे नास्तिक कह देते हैं . मैं नास्तिक नहीं हूँ और भगवान् को मानता हूँ , यह मेरी पर्सनल बात है लेकिन इन कर्म कांडों को वेस्ट ऑफ टाइम एंड मनी मानता हूँ और मैंने अपने परिवार में सुख पाया है. जो जीते माता पिता हैं वोह तो धक्के खाते फिरते हैं लेकिन धर्म आस्थानों पर पैसा पानी की तरह वाहाते हैं यह गलत सोच कर कि भगवान् खुश होगा . आप की कविता बहुत अच्छी लगी , धन्यवाद .

    • प्रिया वच्छानी

      शुक्रीया गुरमेल सिंह जी , मेरा मन भी यह सब देखकर व्यथित हुआ

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