हास्य व्यंग्य

काँटा लगा

कहते हैं सच्चा ज्ञानी वही है जो दुख में भी आनंदित रहे, हँसता रहे, मुस्कुराता रहे और गाता रहे। यही सच्चे जीवन का सार है। इस हिसाब से काँटे का गड़ना, चुभना या लगना शरीर के लिए दुख का कारण हो सकता है किन्तु इस दुख को भी कोई आनंदातिरेक के कारण गीत में बदल दे, तो समझो उसने सच में धर्म का मर्म समझ लिया। पिछले कुछ दिनों से एक धार्मिक गीत पूरे देश के कानों में अमृत घोल रहा है। चुभन भरे दुख से उपजा, सुख का गान-काँटा लगा। मेरा अब तक का तुच्छ जीवन महानगर और नगर की चकाचैंध और रंगीन रश्मियाँ बिखेरती वीथियों में बीता है। पर देश की आत्मा की दर्शन करने, मैं कभी-कभी गाँवों और देहातों की धूल भरी पगडंडियों में भी भटका हूँ। ‘आत्मा’ से मेरा आशय हमारे गाँवों से है।

बापूजी ने यही कहा था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, इसलिए मान लेने में नुकसान नहीं। वैसे भी बापू की कितनी बात हम आजादी मिलने के बाद मानते आये हैं। और प्रत्येक भारतवासी का यह कत्र्तव्य बनता है कि अपने मतलब की एकाध गाँधीवादी बात मान लेने मंे उसका भी सम्मान बढ़ता है, तो हमने सोचा बढ़ा लो। तो भाई गाँव जाने पर वहाँ की कँटीली-पथरीली डगर पर चलते-चलते कोई काँटा भी चुभ जाता था-लग जाता था, या गड़ जाता था-तो हमें याद है हम रोते थे, छटपटाते थे, मचलते और तड़पते थे, ज्यादा से ज्यादा उसे निकालकर फैंक देते थे, पर हमसे यह कभी न हो सका कि शर्ट या बनियान उठा या पैण्ट उतारकर चिल्ला-चिल्लाकर गाने लगे ‘काँटा लगा- काँटा लगा’। हमें इस बात का दुख आजीवन रहेगा कि एक महान दुख को, जो राश्ट्रीय स्तर का हो सकता था, हम राश्ट्रीय सुख में न बदल सके!

जब यह गीत सुना था तो लगा कि बेचारी के पैर-वैर में काँटा गड़ गया होगा, इसलिए मारे दर्द के चीख रही है ‘काँटा लगा- काँटा लगा। लेकिन जब देखा तो घोर नहीं, बल्कि घनघोर आश्चर्य हुआ क्योंकि वहाँ पर वे सारे अंग दिखाये गए थे जहाँ काँटा लगा था और अधिक आश्चर्य तो तब हुआ जब उन अंगों को विशेष रूप से दिखाया गया जहाँ काँटा लगने के चांस बिल्कुल ही न थे। पर वह उन्हीं अंगों पर से थोड़े-बहुत कपडों की परत को उठा-उठाकर चीख रही थी ‘काँटा लगा- काँटा लगा! हमने सोचा धन्य हैं मुंबई जैसे नगर की कोमलांगी गोरियाँ! इतना-सा काँटा लगने पर इतनी हाय-तोबा मचा रहीं हैं। जरा उन ग्राम बालाओं के बारे में सोचो जो नंगे पैर खलिहानों तथा पगडंडियों पर पसीना बहा रहीं हैं। उन्हें न जाने अब तक कितने काँटे लग चुके होंगे पर उन्होंने तो आजतक अपनी नंगी टांगें न दिखायीं। और अगर काँटा लगने पर वे भी इसी तरह गाना शुरू कर दे तो सारा देश बहरा हो जायेगा।

वैसे एक बात कहूँ आपसे। इन काँटों से हमारी फिल्मों और साहित्य को हिट करने में बड़ा योगदान और प्रेमी-पे्रमिकाओं को प्रेरणा दी है। जैसे प्रेमिका के पैरों में चलते-चलते काँटा गड़ा तो झुककर निकालो, हाथों से न निकाल पाओ तो दाँत से। जैसी जिसकी सामथ्र्य हो! और यदि फूल तोड़ते-तोड़ते प्रेमी की अंगुली में काँटा चुभ जाए जो प्रेमिका गोल होंठ बनाकर अपने मुँह में भरकर, चूस ले। और उस समय आशिक मियाँ की आँखों में ऐसे नजरें गड़ाएँ कि काँटा तो निकल जाए पर आँखें दिल तक गड़ जाए। ये भी आर्ट है! आज हमंे इस वक्त इस बात का भी बड़ा दुख है कि अपने जमाने में हमें इन दोनों सुखों-काँटा निकालने और निकलवाने- से वंचित रहना पड़ा। इसके लिए मैं अपने शहर की सफाई कर्मचारियों को दोशी मानता हूँ। उन्हें बड़ी गंदी आदत थी-काम करने की, जो कि इस प्रजाति के लोगों में होती नहीं। सड़के हमेशा साफ रहती थीं और कभी धोखे धड़ाके एकाद काँटा सड़क पर दिख जाता तो समझो मोहल्ले में उत्सव का-सा माहौल हो जाता था। लौण्डे सहेजकर उसे उठा ले जाते और अपने घर के आसपास के रास्तों पर डाल देते, जहाँ से उनकी माशुकाएँ निकलतीं। उन्हें उम्मीद होती कि ऊपर के दो सुखों में से शायद उनके हिस्से में कोई आ जाए। अदना-सा काँटा पूजनीय हो जाता था, साहब! बाद में मोहल्ले में काँटों का महातम्य इतना बढ़ गया कि लोगों ने गमलों में काँटों का उत्पादन करना शुरू कर दिया। आप आजकल जो घरों-घर काँटे बोने का प्रचलन देख रहे हैं न, यह तभी से आरंभ हुआ है।

बडे़-बुजुर्ग कह गये हैं कि, कभी किसी के राह का काँटा मत बनो। आँख का काँटा होना या दिल में काँटा लगना भी अच्छे अर्थों में नहीं लिया जाता। लेकिन आजकल फैशन के चलते ‘काँटा संस्कृति’, अमरबेल की तरह पुष्पित-पल्लवित हो रही है। तारीफ तो यह है कि लोग इसे न सिर्फ दूसरों के मार्ग में बो रहे हैं बल्कि स्वयं खुशी-खुशी इसमें उलझते जा रहे हैं। समझ में नहीं आता कि माँ-बाप अपनी बेटियों को इतने कम कपडे़ क्यों पहनाते हैं? कभी तो लगता है कि देश की भिखारिनों का स्तर इतना ऊँचा हो गया है कि-चिथड़े पहनर ‘टू-व्हीलर’ पर घूम रहीं हैं, कार में भ्रमण कर रहीं हैं। समझ नहीं आता माँ-बाप को अपनी बेटी जो बचपन में जरा कपड़ा यहाँ-वहाँ खिसक जाने पर नंगी लगने लगती थी, युवा होने पर कपडे़ उतारने पर वही सुंदर डाॅल’ कैसे लगने लगती है? क्यों वे उसे ऐसे कपडे पहनने देते हैं कि, काँटा लगे, और गाना पड़े-‘काँटा लगा- काँटा लगा’। और देखनेवाले यह कहने पर विवश हो जायें कि-
कैसे-कैसे गीत गाये, जरा देखो तो अदाएँ
जो न दिखे दिखलाए, नहीं जरा शरमातीं हैं,
देखो नंगों का ये नाच अधनंगों की बारात,
नये-नये रूप धरती पे फैशन के लाती हैं,
रूप इनका अनूप हो कि सरदी या धूप
रंभा-संभा-मेनका-उर्वशी भी घबराती हैं,
नशा आँँखों में छिपा के, छिपा बदन दिखा के
काँटा लगा-लगा काँटा गली-गली चिल्लाती हैं.

इस धार्मिक संस्कृति के लिए किसे दोष दें-माँ-बाप को, बेटियों को या फिर काँटें को? अब भाई, काँटा तो काँटा ठहरा, उसे क्या पता कि विधाता ने उसके लगने-चुभने या गड़ने के लिए मनुष्य मेे पैर के तलुए में स्थान में नियत कर रखा है। उसे तो जहाँ कोमल जगह दिखेगी-वह लग जाएगा, चुभ जाएगा। फिर आप गाते रहिए- ‘काँटा लगा- काँटा लगा।’

One thought on “काँटा लगा

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा व्यंग्य शरद जी.

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