कविता

चाँद और तारिका

आज ‘शरद-पूर्णिमा’ है। प्रायः आप लोग आकाश में रात के समय कभी-कभी चंद्रमा के बहुत पास और साथ-साथ एक तारे या तारिका को देखते होंगे। इसी दृश्य को देखकर कभी मैंने कल्पना की थी वह ‘चाँद’ एक प्रेमी है और साथ वाली वह ‘तारिका’ उसकी प्रेमिका है। दोनों एक दूसरे को बहुत प्रेम करते हैं। कभी बिछुड़ना भी नहीं चाहते है। लेकिन ‘तारे’ आज नहीं तो कल आसमान से टूटकर जमीन पर बिखर जाते हैं और दो प्रेमी ना चाहते हुए भी बिछड़ जाते हैं। लेकिन उनके बीच का प्रेम कभी खत्म नहीं होता। वे हमेशा एक-दूसरे को चाहते रहते हैं। मेरी कल्पना और सोच है कि प्रेम करने वाले दो हृदयों के बीच दूरी कितनी भी बढ़ जाए उनका प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। इसी सात्विक और पवित्र भावना पर आज मेरे पाठकों को समर्पित है यह रचना- ‘चाँद और तारिका’। आपका आशीर्वाद अपेक्षित हैः-

रात ढलती रही, दीप जलते रहे
चाँद और तारिका, साथ चलते रहे
दीप जो थे दीवाली के बुझने लगे
दीप यादों के पर, दिल में जलते रहे।

बात फिर चाँँद ने, तारिका से कही-
“अब किसी मोड़ पर, हम मिलेंगे नहीं
टूट कर तुम धरा पर बिखर जाओगी
हर जनम में रहूँगा, खड़ा मैं यहीं।”

तारिका ने कहा-”पर ना हारुँगी मैं,
बन के तुम को चकोरी, निहारूँगी मैं,
प्यार होगा ना तुम पर, कभी मेेरा कम,
तुमको हरदम जमी से, पुकारूँगी मैं।“

“तोड़कर प्रीत की रीत ना जाऊँगा
नेह के रूप में, ओस बरसाऊँगा
करने श्रृंगार धरती पे, आ ना सकूँ
अपनी किरणों के मैं हार पहनाऊँगा”

”प्यार पा कर तुम्हारा, सँवर जाऊँगी
धूल चरणों की पाकर, मैं तर जाऊँगी
नेह धरती-गगन पर मिलेगा मुझे,
भाग ऐसे भला मैं, कहाँ पाऊँगी?“
चाँद और तारिका की कहानी नहीं
रीत ये प्यार की जिसने जानी नहीं
दूर होते हैं तन प्रीत मिटती नहीं
बात होगी कभी ये पुरानी नहीं,

मन को मंदिर के जैसे, बना रखो
अपने प्रियतम को उसमें, बिठाकर रखो
अर्चना उस विधाता की हो जाएगी
दीप तुम प्यार का बस, जला कर रखो।

One thought on “चाँद और तारिका

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी रचना !

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