“तुम आकाश हो”
मै सीमित धरती
तुम उड़ते हुए उन्मुक्त बादल हो
मै एक लकीर पर बहती नदी
तुम मधुर स्वप्न हो
मै मन की शुभ अंतरदृष्टि
तुम बाहें फैलाए तट हो
मै मंझधार में
डगमगाती सी चिंतित खड़ी
तुम क्षितिज सा अप्राप्य हो
मै तुम्हें छूने के लिए
जिद्द पर हू अड़ी
तुमसे मिलन असंभव हो
मै विरह की जीती हूँ
अमिट जिन्दगी
तुम उदयाचल का सूर्योदय
मै अस्ताचल मे
अंतिम तम बन ठहरी
तुम …निराकार
अनश्वर सम्पूर्ण सत्य हो
मै …साकार
देह बनी अधूरी
तुम महानगर मे सचमुच
गौरव पथ हो
वहां से मेरे इस
अबूझ गाँव तक के पथ की
मैं हूँ …अनंत दूरी
kishor kumar khorendra
बहुत खूब ! अच्छी कविता !!
shukriya