कहानी

हकीकत

एक बार खाली सी शाम थी तो यूंही टहलने निकल पड़ा..बाज़ार शुरु होते ही चमचमाती लाइटें..गोलगप्पे खाती महिलाये..खोखे के पीछे छिपकर..सुट्टा लगाते कुछ लड़के..सपरिवार शापिंग..करके कारों में आते-जाते लोग..चाय की चुस्कियां लगाते ऑफिस..गोइंग पर्सन्स..एक दूसरे के आगे-पीछे भागती जिंदगियां… सब कितना अपना सा लगता है और कभी-कभी बेगाना भी.
टहलते-टहलते सोचा कि आज घर पर कोई खाना बनाने वाला नहीं है तो खाना पैक करवा के ले चलता हूं… मगर यहां किसी रेस्त्रां से कराऊंगा तो महंगा पड़ेगा..यह सोचकर मार्केट से चंद कदम दूर एक ढाबे से खाना पैक करवाने के लिये चल पड़ा. भीड़ और लाइटें कम होती जा रही थीं और..अंधेरी हरियाली बढ़ती जा रही थी. सड़क से ज़रा हटके कुछ अजीब सी हलचल ने ध्यान खींच लिया. ढाबे से कुछ पास एक इनोवा खड़ी थी जिसमें कुछ हलचल सी थी. कुछ समीप गया पर जल्द ही स्थिति समझकर पीछे हो गया और खाना पैक करवाने लगा. दस मिनट बाद मैं रिक्शा का इंतज़ार कर रहा था.

इतने में साधारण से कपड़ों में एक सुंदर सी लड़की मेरे पास आई और बोली,” क्या देख रहा था गाड़ी में?”
“कुछ नहीं” मैंने जवाब दिया।
“हज़ार रुपये सिंगल ट्रिप, तीन हज़ार फुल नाइट”
“क्या करोगी इतने पैसों का?”
“मेकअप और खाना-खर्चा और क्या. तू काम की बात कर.

“काम की बात.. हम्म.. मेरे ऑफिस में काम करोगी?”

“क्या देगा?”
“आठ हजार प्लस इंसेंटिव। और हां इज्ज़त भी। वही नारी सम्मान जिसका तुम्हें हक है।”
“रहने दे। मुझे एक बार ट्राई कर। कस्टमर दिलवा. इससे ज्यादा दूंगी।”
“रिक्शा..” मैंने रिक्शा को आवाज देकर रोका और निकल लिया…रास्ते भर घर तक गहन सोच में डूबा हुआ, मार्केट की रौनक से बेखबर..घर जाकर ताला खोला ही था कि सामने वाले घर से..कामवाली निकल कर आ गई,” कहां थे भाई जी मैं कब से इंतजार कर रही हूं।”
“अरे तुम। आज काम नहीं है तुम सुबह आना अब।”

“ठीक है भाई जी.. आज महीना हो गया। मुझे सौ रुपये ज्यादा चाहिये बंटी बीमार है, अगले महीने एज्जस्ट कर लेना।”

“ठीक है। कोई बात नहीं अभी देता हूं।” पैसे लेकर वो चली गई मगर एक सवाल और छोड़ गई..क्या वाकई वेश्याओं के पास बदन बेचने के अलावा कोई चारा नहीं होता??

क्यों संपन्न परिवारों की लड़कियां भी बिकती हैं?? क्या कोई अपंग महिला भी वेश्या होती होगी.. अगर होगी तो भूखी मर रही होगी?? क्या पुरुष प्रधान समाज में सिर्फ यही रास्ता है पैसे कमाने का ऐसी महिलाओं के सामने?? क्या नारीमुक्ति मोर्चे सचमुच इन महिलाओं को आज़ादी दिला सकते हैं?? मगर किससे आज़ादी..खुद से?? अगर हां तो आर्थिक रूप से समृद्ध वेश्याए क्यों नही करती कुछ??

खाना फ्रिज में रखकर मैं काॅम्बिफ्लैम खा के सो गया.

3 thoughts on “हकीकत

  • धर्म सिंह राठौर

    शौकिया ऐसा काम करने वाली भी जब पकड़ी जाती हैं तो इलजाम या तो लड़कों पर लगा देती हैं या कोई मजबूरी बता के बच जाती हैं

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कहानी ! यह काम करना किसी की मजबूरी होती है तो किसी का शौक !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    भाई साहिब , इस ज़माने में कुछ समझ नहीं आता , सुना है , ऐसा बुरा काम मजबूरी में होता है , लेकिन दुसरी तरफ ऐश उड़ाने के लिए यह होता है . किस से पूछें ?

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