हास्य व्यंग्य

मैं और कीड़ा

कहते हैं मनुष्य के दिमाग में एक कीड़ा होता है, जो समय-बेसमय पर उसे काटता रहता है। उस दिन कीड़े ने मुझे काटा और पूछा-“क्यों रे मानव खोपड़ी, ये मिलावट क्या होती है? तू इस पर विश्वास करता है?”

मैंने कहा-”भैया मेरे, मिलावट पर विश्वास न करना भगवान पर अविश्वास करने के समान है। बिना मिलावट के यह संसार निःसार है। चल ही नहीं सकता।“

”पढ़ा-लिखा आदमी होकर कैसी मूर्खों जैसी बातें करता है?“ अब कीड़े ने ज़रा जो़र से दाँत गड़ाए। मैंने कहा-”भैया, आजकल तो मिलावट का ही युग हैं। वह चाय पत्ती, चाय पत्ती नहीं, जिसमें घोड़े की लीद न हो। वह अनाज क्या जिसमें कंकड़ न हो। वह घी क्या, जिसमें डालडा न हो। अरे भाया, शुद्ध दूध तो आजकल गाय-भैंसे भी नहीं देतीं। संगीत, संगीत नहीं रहा। लक्ष्मी-प्यारे हो गया। नदीम-श्रवण हो गया। कुत्ता भी अब कुत्ता न रहा। अल्सेसियन हो गया, डाॅबरमेन हो गया और बुलडाग हो गया। मिलावट देवी तो यहाँ तक पहुँच गयी कि हमारी सरकार भी बड़ी मुश्किल से शुद्ध हो पाई। वरना कभी अठारह दलों का तो कभी तेईस दलों का काकटेल हो गई थी। एक ही घूँट में रम का मज़ा भी देती है और देशी का भी।

कीड़ा मेरी बात मानने को कतई तैयार न था। कीड़ा जो था। उसे तो मेरी खोपड़ी खाने की आदत पड़ चुकी थी। तुनककर बोला- ”मैं नही मानता इस मिलावट-विलावट को। तेरी खोपड़ी में देख, क्या शुद्ध साहित्यिक गूदा भरा हुआ हैं।“

मैंने कहा-”दादा, ये शुद्ध खोपड़ीवाला दिमाग भी मिलावटी हैं। सारी मानव काया ही मिलावट की देन है।“ कीड़े ने जोर से काटा। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि किसी मिलावटी माल पर पल रहा है।

मैंने कहा-”बंधु, तुझे साहित्यिक खोपड़ी खाने का तो शौक है, पर साहित्य का जरा भी ज्ञान नहीं! अरे कबीर बाबा तो ये पाँच तार का तंबूरा बजाते-बजाते अल्लाह को प्यारे हो गये और तुलसीबाबा ने भी डंके चोट पर ऐलान किया था- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंच तत्व मिलि बना शरीरा।। अब बता इस देश में किसमें दम है जो इन दो दादाओं की बात को काट सके?“

कीड़ा इतनी आसानी से हार माननेवाला न था। कीड़ा जो ठहरा। बोला- ”रे पगले! तू ठहरा नये ज़माने का पढ़ा-लिखा आदमी। तैने ज़रा भी दिमाग नहीं। इन बूढ़ों की बातों को गाँठ बाँध कर बैठ गया। तेरे से अच्छा तो मैं हूँ। कम-से-कम इन दकियानूसी बातों पर तो विश्वास नहीं करता। सच ही तो है जितना खतरा इस देेश को अनपढ़-गँवारों से खतरा नहीं है, उससे ज्यादा खतरा इसे तुम जैसे पढ़े-लिखों से है।“

सच में अब कीड़ा मेरे अहम् को चुनौती देने लगा था। मैंने कहा-”मैं इस बात को प्रमाणित कर सकता हूँ।“ कीडे़ को लगा अब मैं फँसा उसके जाल में। वह बोला-“ठीक है, दम है तो करो सिद्ध।”

मैं शुरू हो गया। हाथ कंगन को आरसी क्या, और पढ़े-लिखे को फारसी क्या? मैंने अंगुली से शरीर को थोड़ा-सा खुरचा तो मिट्टी निकली। कीड़ा बोला- “हूंऽ-हूंऽ।” मैंने कहा-“देख भैये, ये रहा पहला भूत। और तूने समय-समय पर इस शरीर से हवा और पानी निकलते देखा है जो आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है।” वह बोला-“ठीक है, मान लिया। अब बता, तेरी बाॅडी में आकाश कहाँ है?”

मैं थोड़ा सोच में पड़ गया। कीड़े को लगा लोहा गरम है। उसने तुरंत प्रहार किया-“खा गए गच्चा।” मैं बोला-“नहीं बच्चा। देख तूने कभी-कभी मेरे पेट से कुछ गुड़गुड़ाने की आवाज़ सुनी है, बादलों के गरजने टाईप। अब भैया, बादल तो धरती या पानी पर होते नहीं, आकाश में ही छाए रहते है। बस मान ले कि मेरे भीतर कहीं आकाश भी हैं।“

कीड़े ने आखरी दाँव मारा-“अच्छा माना। अब आदमी में आग कहाँ से निकालेगा?” एक पल को लगा कि मैं भी कीड़े के जाल में फँसा किंतु तुरंत मेरी चेतना जागी-“है-है, आग भी है, इस शरीर में। बल्कि आग ही आग है। अरे जब पेट खाली होता है तो भूख की आग लगती है। किसी नवयौवना को देखो तो काम-वासना की ज्वाला दहकती है या नहीं? दादा, जब मैं किसी को अपने से आगे से बढ़ता हुआ देखता हूँ, किसी का फायदा होते देखता हूँ, किसी को अपने से ज्यादा प्रतिभावान पाता हूँ और किसी को अपने से अधिक ज्ञानवान और धनवान देखता हूँ तो, एक अज़ीब-सी जलन होती है, तन-बदन में आग-सी लग जाती है। और जानते हो उस समय लगता है इस आग के सामने संसार की सारी आग व्यर्थ हैं-क्या दावानल, क्या बड़वानल और क्या जठरानल? सब इनके आगे ठंडी महसूस होती हैं। मेरा सारी शरीर धधक उठता है। यही है पाँचवाँ महाभूत- आग।“

अब कीड़े के पास कोई तीर न बचा था। वह शांत हो गया। मेरे तर्कों के कारण वह भी सुलग रहा था-ईर्ष्या की आग में। जिसकी आँच मैं महसूस कर रहा था।

2 thoughts on “मैं और कीड़ा

  • गुंजन अग्रवाल

    waah umda vyang

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत करारा व्यंग्य !

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