कविता

जीवन का लक्ष्य

नदी किनारे बैठे बैठे मैंने देखा जल का खेल.

अपनी उठती लहरों से ज्यों बना रहा हो पर्वत शैल,
कहीं भंवर थी कहीं तरंगे आपस में टकराती थी,
इधर उधर से जो भी मिलता उसे बहा ले जाती थी .
तभी एक पीपल का पत्ता उड़ कर जल में आन पड़ा.
लहरों के संग उछल उछल कर नाच रहा था मस्त बड़ा,
मैंने पूछा- “कहाँ चला है लक्ष्य कहाँ पर है तेरा,
इतना क्यों तूं मचल रहा है बढता हुआ अकेला?”
पत्ता बोला- “कहाँ चला हूँ, इसका मुझको ज्ञान नहीं,
आगे मुझ पर क्या बीतेगी इसका भी कुछ ध्यान नहीं,
मैं तो नर्तन का लोभी हूँ आ बैठा हूँ लहरों पर ,
अपनी धुन में नाच रहा हूँ कभी इधर और कभी उधर ,”
हाय तभी पीपल का पत्ता बीच भंवर में आन फंसा ,
‘मुझे बचाओ मुझे बचाओ’, चिल्लाया वह दींन बड़ा,
जिन लहरों संग झूम रहा था उनका संग भी छूट गया ,
पल भर में उसकी मस्ती का सारा आलम टूट गया ,
और वह बेचारा पत्ता बीच नदी में डूब गया,

जिनका लक्ष्य नहीं जीवन में ऐसे वह खो जाते हैं,
जैसे रोज़ हजारों पत्ते पानी में बह जाते हैं

———जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया जन्म दिन --१४/२/१९४९, टेक्सटाइल इंजीनियर , प्राइवेट कम्पनी में जनरल मेनेजर मो. 9855022670, 9855047845

One thought on “जीवन का लक्ष्य

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    महान विचार हैं भाई साहिब , बगैर लक्ष्य के जीवन भंवर में ही फसा रहता है .

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