भाषा-साहित्य

ग़ालिब

ग़ालिब या शेक्सपियर की एक पंक्ति हज़ार अवसरों पर हज़ार नए अर्थ पैदा कर सकती हैं. ग़ालिब उर्दू का अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं , उन्हें इकबाल और गेटे के समकक्ष माना जाता हैं. वे मानव नहीं मानव पारखी थे , ग़ालिब की अभिरुचि ,रस और आनंद की प्राप्ति में सीमाओं का बन्धन नहीं मानती. वे सौन्दर्य कों इस प्रकार आत्मसात कर लेना चाहते हैं कि निगाहों को भी अपने और माशूका के बीच बाधा समझते हैं.

शौक ..ग़ालिब का प्रिय शब्द है, इस परिवार के अन्य शब्द ..तमन्ना , आरजू ,और ख्वाहिश से उनकी कविता छलक रही हैं. ग़ालिब मंजिल का नहीं मंजिल के पथ का , तृप्ति का नहीं , तृष्णा के रस का कवि है. प्यास बुझा लेना उनका उद्देश्य नहीं ,प्यास को बढ़ाना उनका आदर्श है.  मौज =तरंग ,तूफ़ान , तलातुम =आवेग ,शोला =ज्वाला ,सीमाब =पारा ,बर्क =बिजली और परवाज =उड़ान ..शब्दों का प्रयोग उन्होंने बहुतायत से किया है.

बियाबान पथिक के क़दमों के आगे आगे भागने लगते हैं. बेजान पत्थरों के सीने में अनगढ़ी मूर्तियाँ नृत्य करने लगती हैं. आईनों के जौहर में पलकें विकम्पित हो उठती हैं. मदिरा पात्रो की हाथो की रेखाओं में रक्त दौड़ने लगता हैं. माशूक के वार्तालाप से दीवारों में जान पड़ जाती है.

बस कि दुश्वार है, हर काम का आसां होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं , इंसां होना

यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल -ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तिज़ार होता

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता

जिन्दगी यों भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा  रहगुज़र याद आया

कोई वीरानी सी वीरानी है
दस्त को देख के घर याद आया

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएं क्या

पूछते हैं वह कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओं कि हम बतलाएं क्या

ग़ालिब न कर हुजुर में बार बार अर्ज़
जाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बगैर

हैं और भी दुनियाँ में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज-ए -बयाँ और

नादाँ हो जो कहते हो कि क्यों जीते हो ग़ालिब
किस्मत में हैं मरने की तमन्ना कोई दिन और

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी जुल्फ के सर होने तक

वह फिराक और वह विसाल कहाँ
वह शब -ओ -रोज -ओ माह -ओ साल कहाँ

की वफा हम से तो गैर उसे जफा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं

मेहरबां होके बुलालो मुझे चाहो जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं हूँ कि आ भी न सकूँ

छोड़ा न रश्क ने कि तेरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ जाऊं किधर को मैं

जाना पडा रकीब के दर पर हजार बार
आय काश जानता न तिरी रहगुज़र को मैं

चलता हूँ थोड़ी दूर हर एक तेज रौ के साथ
पहचानता नही हूँ अभी राहबर को मैं

ख्वाहिश को अहमकों ने परस्तिश दिया कऱार
क्या पूजता हूँ उस बुत -ए -बेदादगर को मैं

यह हम जो हिज्र में ,दीवार -ओ -दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामबर को देखते हैं

वह आये घर में हमारे, खुदा की कुदरत हैं
कभी हम उनको , कभी अपने घर को देखते हैं

रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो
हम सुखन कोई न हो और हम जबाँ कोई न हो

बेदर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
कोई हमसाया न हो और पासबाँ कोई न हो

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नही आती

मौत का एक दिन मुअइयन हैं
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल -ए -दिल पे हंसीं
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब -ए -ता”अत -ओ जोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात , जो चुप हूँ
वरना क्या बात कर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहां से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरजू में मरने की
मौत आती हैं पर नहीं आती

काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नही आती

दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नही जानता दुआ क्या है

मैंने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब
मुफ्त आये तो बुरा क्या है

मैं उन्हें छेडू और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिये होते

आ ही जाता वह राह पर ग़ालिब
कोई दिन और भी जिए होते

नुक्ताचीं है गम -ए -दिल उसको सुनाये न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाये न बने

इस नजाकत का बुरा हो , वह भले हैं तो क्या
हाथ आवे तो उन्हें हाथ लगाए न बने

इश्क पर जोर नहीं है यह वह आतिश ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

कहा है किसने कि ग़ालिब बुरा नहीं है
सिवाए इसके कि आशुफ्त सर हैं क्या कहिये

रोने से और इश्क में बेबाक हो गये
धोये गये हम ऐसे कि बस् पाक हो गये

बक रहा हूँ जुनूं में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे खुदा करे कोई

रोक लो गर गलत चले कोई
बख्श दो गर खता करे कोई

हज़ारों ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

कहाँ मैखाने का दरवाजा ग़ालिब और कहाँ वाईज
पर इतना जानते हैं ,कल वह जाता था कि हम निकले

आईना क्यों न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊं कि तुझ सा कहें जिसे

ग़ालिब ,बुरा न मान , जो वाईज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शायर तो वह अच्छा है पर बदनाम बहुत है

चंद तस्वीर -ए -बुताँ, चंद हसीनों के ख़ुतूत
बाद मरने के मिरे घर से यह सामाँ निकला

[दीवान -ए -ग़ालिब .शीर्षक लेखक अली सरदार जाफ़री की किताब से संकलित ]

संकलनकर्ता – किशोर कुमार खोरेंद्र
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किशोर कुमार खोरेंद्र

परिचय - किशोर कुमार खोरेन्द्र जन्म तारीख -०७-१०-१९५४ शिक्षा - बी ए व्यवसाय - भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत एक अधिकारी रूचि- भ्रमण करना ,दोस्त बनाना , काव्य लेखन उपलब्धियाँ - बालार्क नामक कविता संग्रह का सह संपादन और विभिन्न काव्य संकलन की पुस्तकों में कविताओं को शामिल किया गया है add - t-58 sect- 01 extn awanti vihar RAIPUR ,C.G.

One thought on “ग़ालिब

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख. ग़ालिब बहुत उच्च कोटि के शायर थे. उनके शेरों का संकलन करना भी मुश्किल काम है. एक से एक बढ़कर शेर उन्होंने लिखे हैं. प्रत्येक में बहुत गहरा अर्थ है.

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