कविता

*******जनक की प्रतिज्ञा*******

फिर ना बंजर भूमि पर अब मैं हल चलाऊंगा
धरती माँ की कोख से कोई सीता ना उपजाऊंगा
महादेव का महाधनुष ना अब प्रत्यंचा पायेगा
मेरी विरदावली आज से कहीं कोई ना गायेगा
मैं अभागा किस हेतु से यज्ञ कोई करवाऊं अब
जिस सीता को प्रेम से पाला क्यों उसकी बलि चढाऊं अब
राम रहा ना कोई धरा पर रावण का साम्राज्य है
भारत भूमि रही अखंड ना पग पग सभी विभाज्य है
महादेव तुम देना मुझको वो धनुष उठा जो पाऊं मैं
लाज बचाने अपनी पुत्री की जिससे बाण चलाऊं मैं
बीच सभा में मेरी पुत्री पुनः ना ऐसी लज्जित हो
नहीं चाहिए ऐसा शासन जो सीता विहीन सुसज्जित हो
शपथ हजारो बार कि जिससे दिलवाई जाये पावनता की
नहीं चाहिए कोई सुख समृद्धि ऐसी कलुषित जनता की
प्राणों से प्यारी मेरी पुत्री को लोकापवाद ने लीला है
सुदृढ़ दिखता ये समाज भी अन्दर ही अन्दर ढीला है
राम तुम्हारा दोष नहीं है, ये समाज ही ऐसा है
रावण तुमने एक है मारा पर ये रावण के जैसा है
कोई पतिता रोज यहाँ पर लाज बचाती कंसों से
मन के काले कौओं से, बातों के मीठे हंसों से
इसीलिए ये मेरी प्रतिज्ञा अब ना धरती पर सीता लाऊंगा
कब तक तुम संघर्ष करोगे कब तक मैं नीर बहाऊंगा
फिर ना बंजर भूमि पर अब मैं हल चलाऊंगा
धरती माँ की कोख से कोई सीता ना उपजाऊंगा
_________________________________________सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

One thought on “*******जनक की प्रतिज्ञा*******

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब! आपने सीता और जनक के उदाहरण से एक अबला के पिता की पीड़ा का अच्छा चित्रण किया है.

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