सामाजिक

घर के भीतर ही नहीं, घर के आसपास भी ज़रूरी है प्रकाश

दीपावली पर सभी अपने-अपने घरों को रोशन करते हैं। घरों को ही नहीं आसपास को भी। दीपक ऐसे रखे जाते हैं कि चारों तरफ़ प्रकाश फैल सके। घरों के साथ-साथ उन सार्वजनिक स्थानों पर भी एक-एक दीपक रख आते हैं जहाँ प्रकाश करने वाला कोई नहीं होता। एक दीपक गली के सूने कोने पर तो एक दीपक चैपाल के चबूतरे पर। अब यदि घर के भीतर दीपक प्रज्वलित करना भूल भी गए तो कोई बात नहीं। चारों तरफ प्रकाश है तो सही। चारों तरफ प्रकाश है तो अँधेरा घर के अंदर कैसे रह सकेगा?

हमारे यहाँ बिजली-पानी की कोई समस्या नहीं है। कभी-कभार छठे-चैमासे एक-आध घंटे के लिए बत्ती गुल हो भी गई तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? एक दिन बिजली चली जाती है। मुझे लगता है बिजली का चले जाना भी अकारण नहीं था। उसमें भी कोई संदेश निहित था। बिजली चली जाती है और चारों ओर गहन अंधकार व्याप्त हो जाता है। मैं इमरजेंसी लाइट जला लेता हूँ और अपने काम में लग जाता हूँ।

तभी कहीं से एक दैत्याकार मच्छर कमरे में घुस आता है और कभी लाइट पर व कभी मुझ पर प्रहार करने लगता है। मैं मच्छर को बाहर करने की कोशिश करता हूँ पर सब बेकार। मैं अपना काम छोड़कर उत्पन्न स्थिति पर विचार करने लगता हूँ तो पाता हूँ कि यह सब स्वाभाविक ही है। कीट-पतंग रोशनी की ओर आकर्षित होंगे ही। यदि सब जगह प्रकाश होगा तो वे चारों ओर बिखर जाएँगे अन्यथा जहाँ प्रकाश होगा सब वहीं एकत्र हो जाएँगे। घातक हो जाता है प्रकाश भी अगर वह एक ही स्थान पर घनीभूत हो जाए।

‘अज्ञेय’ की एक कविता ‘घर’ याद आती है।

घर/मेरा कोई है नहीं/घर मुझे चाहिये/घर के भीतर प्रकाश हो/इसकी मुझे चिंता नहीं/प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो-/इसकी मुझे तलाश है।

व्यक्ति और समाज की कमोबेश यह स्थिति है कि हम सब अपने घर के भीतर प्रकाश चाहते हैं। स्वयं का उत्थान चाहते हैं। केवल अपनी समृद्धि के लिए प्रयास करते हैं। लेकिन क्या ये स्वाभाविक है? शायद नहीं। केवल एक स्थान पर प्रकाश, उन्नति अथवा समृद्धि हो यह संभव तो है लेकिन ऐसी स्थिति में अंधकार से ग्रस्त अथवा अभावपीड़ित व्यक्ति रूपी मच्छर हमारे घर में घुस आएँगे और हमारा जीना दुश्वार हो जाएगा।

सबको प्रकाश की तलाश होती है। वेदों में भी यही ध्वनि प्रतिध्वनित होती है कि असतो मा सद्गमय/तमसो मा ज्योतिर्गमय/ मृत्योर्माऽअमृतंगमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। प्रकाश, सत्य और अमरता इन्हीं की कामना की गई है। ठीक भी है क्योंकि ये सभी सकारात्मक जीवन मूल्य हैं। सकारात्मक जीवन मूल्यों के अभाव में जीवन में प्रसन्नता, ख़ुशी अथवा आनंद असंभव है। लेकिन क्या मात्र हमारे घर में, मात्र हमारे जीवन में प्रसन्नता, ख़ुशी अथवा आनंद का स्थाई निवास संभव है? क्या यह संभव है कि हमारे चारों ओर तो दुख, दरिद्रता, अंधकार और असत्य पसरे पड़े हों और हम प्रसन्न, सुखी, समृद्ध, उज्ज्वल, सत्यनिष्ठ और ज्ञानवान बने रहें?

मान लीजिए हम स्वयं तो रोशनी में हैं लेकिन हमारे चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा व्याप्त है तो क्या ऐसे में हमारा सर्वत्र प्रकाशित बने रहना संभव हैं? जैसे ही हम अपने प्रकाश के घेरे से बाहर निकलने का प्रयास करते हैं हमें चारों तरफ व्याप्त अँधकार डसने को दौड़ता है। हम पुनः अपने प्रकाश के घेरे की ओर दौड़ लगाने को विवश हो जाते हैं। इस प्रकार केवल स्वयं प्रकाशित होकर भी हम एक अत्यंत संकुचित दायरे अथवा घेरे में क़ैद रहने को अभिशप्त हो जाते हैं। कवि ठीक ही कहता है जब वह प्रकाश के घेरे के भीतर बने घर की तलाश की कामना करता है। वास्तव में हमारे पास का प्रकाश उतना महत्त्व नहीं रखता जितना हमारे आसपास का प्रकाश।

यदि हमारे आसपास प्रकाश होगा तो यह स्वाभाविक ही है कि उस प्रकाश का लाभ हमें भी मिल जाएगा। चाँदनी रात में ही नहीं, अँधेरी रात में तारों भरे आकाश का प्रकाश भी कितना सुकून, कितना आनंद देता है यह बताने की आवश्यकता नहीं। कभी अँधेरे में खड़े होकर आसपास की रोशनी को निहारने का प्रयास तो कीजिए, अवश्य आनंद आएगा। रजत पट पर फिल्म का सही मज़ा तभी आता है जब सिनेमा हाॅल की सारी बत्तियाँ बुझा दी जाती हैं। तभी पर्दे पर चल रही फिल्म अधिकाधिक स्पष्ट होकर हमें पूरा मज़ा देती है। हमारा पूरा ध्यान रजत पट पर केंद्रित हो जाता है। ऐसे ही जीवन में बाहरी प्रकाश से आनंदित होना अच्छा है।

अब प्रकाश को ही लीजिए, इसके भी अनेकानेक निहितार्थ हैं। प्रकाश तो प्रतीक है। प्रकाश प्रतीक है ख़ुशी का, आनंद का, समृद्धि का, ज्ञान का। यदि हमारे आसपास ख़ुशी, आनंद, समृद्धि और ज्ञान का भंडार है तो क्या उससे हमें कोई नुक़सान होगा? कदापि नहीं। यदि हमारे आसपास के लोग सुखी-समृद्ध हैं तो इससे देर-सवेर न केवल हम स्वयं सुखी और समृद्ध हो जाते हैं अपितु सुरक्षित भी हो जाते हैं। यदि हम भूखे-नंगे, चोर-उचक्के, अभावग्रस्त व अज्ञानी लोगों के बीच हैं तो किसी भी तरह से सुरक्षित नहीं हो सकते। ऐसे समाज में अपनी समृद्धि का प्रदर्शन तो दूर ऐसे लोगों के बीच सामान्य जीवन व्यतीत करना भी असंभव हो जाता है।

यदि आपके मित्र और रिश्तेदार अच्छी हैसियत के मालिक हैं तो आप जैसा सुखी इंसान नहीं। वो आपको बेशक अपनी समृद्धि में शरीक न करें लेकिन आपको कष्ट तो नहीं देंगे। यदि हम सकारात्मक सोच से युक्त हैं तो हम उनसे प्रेरणा और प्रोत्साहन लेकर स्वयं भी आगे बढ़ सकते हैं। जो लोग दूसरों के सुख-समृद्धि में आनंद पाते हैं वो लोग उन लोगों से बहुत अच्छे हैं जो दूसरों की सुख-समृद्धि से ईष्र्या करते हैं। ईष्र्या तो हमारे विवके को ऐसा नष्ट करती है कि हम स्वयं अपने उद्धार से विमुख होने लगते हैं। सीधी सी बात है यदि समाज में सुख-समृद्धि का स्तर बढ़ता है तो सारा समाज लाभांवित होता है। हम स्वयं भी उस लाभ से वंचित नहीं रहेंगे, यह भी निश्चित है। यदि आपके घर के भीतर प्रकाश है तो कोई चिंता की बात नहीं। इस प्रकाश को विस्तार दीजिए। इसे निरंतर विस्तार पा रहे एक वृहद् वलय में परिवर्तित कर दीजिए।

— सीताराम गुप्ता

सीता राम गुप्ता

ए.डी. 106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034 फोन नं. 09555622323 Email : srgupta54@yahoo.co.in