सामाजिक

संस्कृतविरोध के मायने

हाल ही में सी बी एस ई द्वारा विद्यालयों में अगस्त माह में संस्कृत सप्ताह मनाये जाने का आदेश दिया गया । आदेश के साथ ही इसका विरोध भी शुरू हो गया । माना गया कि यह आदेश केन्द्र सरकार के इशारे पर किया गया जिसके अपने कुछ मूलभूत सिद्धान्त हैं । अपनी क्षेत्रीय भाषाओं की सुरक्षा के नाम पर हिन्दी का निरन्तर विरोध कर रहे दक्षिण भारतीय राज्यों में से एक तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता एवं वहां के नेता वाईको द्वारा संस्कृत सप्ताह का विरोध किया जाना हैरत नहीं पैदा करता है ।

दिलचस्प यह है अंग्रेजी से गलबहियां डाले ये तमाम सरकारें व नेता अंग्रेजी द्वारा क्षेत्रीय भाषाओं सहित हिन्दी की की जा रही क्षति को दरकिनार कर संस्कृत हिन्दी को अपनी भाषाओं के लिए खतरा मानती हैं । ये नेता राष्ट्रभाषा हिन्दी व संस्कृत का विरोध कर सकते हैं लेकिन अंग्रेजी का नहीं । भले ही वह समय समय पर किया जा रहा हिन्दी फिल्मोद्योग का विरोध ही क्यों न हो ।

लेकिन मूल बात समझने की यह है कि संस्कृत दक्षिण भारतीय भाषाओं केा आखिर किस प्रकार क्षति पहुंचा सकती है ? संस्कृत से हिन्दी जिस ढंग से पनपी है उससे कहीं अधिक बेहतर ढंग से हम संस्कृत को दक्षिण भारतीय भाषाओं में पाते हैं । दक्षिण भारतीय भाषाओं में सिर्फ शब्द ही नहीं बल्कि कई बार तो वाक्य के वाक्य संस्कृत के ही देखे जाते हैं । लेकिन आज अंग्रेजी हमारी सभी भाषाओं में इस रूप में स्थान बना रही है कि कहीं यह किसी भाषा के कर्म तो कहीं कर्ता व कहीं किसी अन्य कारक चिह्न का स्थान हड़प लेती है । यह कुछ कुछ अंग्रेजों द्वारा पहले थोड़ा सा स्थान मांगकर फिर पूरे देश पर राज करने सरीखा दिखता है । हर भाषा इसी प्रकार दूसरी भाषा को समाप्त करती है । बहुत भारतीय आपको इस ढंग से बात करते मिलेंगे जिनकी बातचीत में सिर्फ क्रिया ही हिन्दी की मिलती है शेष सब कर्ता कर्म आदि अंग्रेेजी में । इसे आज हम हिंगलिश कहने लगे हैं।

इसलिए विदित होना चाहिये कि यदि संस्कृत आती है तो वह सबसे पहले हमारी राष्ट्रीय व क्षेत्रीय भाषाओं को समृद्ध करने का ही कार्य करेगी और जहां जहां अंगे्रजी अपना स्थान क्षेत्रीय व राष्ट्रीय भाषा में बना रही है वहां से उन्हें हटाने में मददगार साबित होगी । लेकिन इनका संस्कृत से विरोध इनके अंग्रेजी प्रेम के कारण ही है । इसलिए दक्षिण का यह विरोध कतई तर्कसंगत नहीं है कि संस्कृत के आने से उनकी अपनी क्षेत्रीय भाषा को केाई क्षति पहुंचने वाली है । हां , संस्कृत के बाहर हो जाने से अंग्रेजी जरूर तेजी से पांव पसारकर इन भाषाओं को क्षति पहुंचा रही है । लेकिन एकबारगी ऐसा लगता है कि ये तमाम राज्य या दल जो संस्कृत का विरोध कर रहे हैं अपनी क्षेत्रीय भाषा के लिए जो चिन्ता दिखा रहे हैं वह कोरी बकवास है । जगह जगह अंगे्रजी में अपने भाषण बांचते ये नेता यदि अंग्रेजी का स्थान हिन्दी संस्कृत जैसी भाषाओं को दे देंगे तो इससे इनकी क्षेत्रीय भाषा की समृद्धि ही होगी ।

1956 में भारत सरकार ने संस्कृत आयोग की स्थापना की व इस आयोग ने विश्वविख्यात भाषावैज्ञानिक डाॅ सुनीति कुमार चटर्जी की अध्यक्षता में अपना प्रतिवेदन एक वर्ष बाद 1957 में दिया जिसमें उन्होंने कहा था – मूलतः संस्कृत के सांस्कृतिक मूल्य पर ही हमारे देश की एकता निर्भर है । क्षेत्रीय भाषावाद जैसी अनेक विघटनात्मक प्रवृत्तियों से हमारे देश की एकता खतरे में है । इन तत्वों को निष्क्रिय बनाने के लिए शासकीय तथा शैक्षिक स्तर पर संस्कृत का प्रश्रय आवश्यक जान पड़ता है । जैसे जैसे हम संस्कृत को अपनाएंगे, उसकी एकीकरण की शक्ति बलवती होगी तथा ये विघटनात्मक प्रवृत्तियां क्षीण एवं शिथिल होती जाएंगी ।

आयोग सन् 1835 में लार्ड मैकाले के ऐतिहासिक घोषणापत्र की चर्चा करता है जिसमें मैकाले ने उद्देश्य स्पष्ट कर कहा था – एक ऐसे भारतीय समाज का निर्माण करना जो कि रक्त तथा रंग में तो भारतीय हो , किन्तु अपनी रूचियों , अपने आचार विचारों , अपने व्यवहारों एवं अपनी बुद्धि में वह अंग्रेज हो । मेकाले की संस्तुतियों में से प्रमुख संस्तुति यह है कि संस्कृत तथा अरबी के ग्रन्थों का प्रकाशन तथा कलकत्ते में खोले गये मदरसे तथा संस्कृत पाठशाला को तुरन्त बंद कर दिया जाये ।

पृष्ठ 88 पर आयोग कहता है – हम देखते हैं कि यद्यपि इस प्रकार समस्त भारत संस्कृत के क्रोड में समा गया तथापि संस्कृत की यह विशेषता रही है कि उसने अन्य भाषाओं को कदापि नहीं दबाया । इन भाषाओं की अपनी अपनी विशेषताएं ज्यों की त्यों बनी रहीं । इसका ज्वलन्त प्रमाण है कि संस्कृत के आदर्श पर अन्य भारतीय भाषाओं ने भी अपने अपने व्याकरण की रचना की । दक्षिण भारत की भाषाएं भी इन भाषाओं की श्रेणी में आ जाती हैं । जियो और जीने दो , की नीति से संस्कृत ने अन्य भाषाओं का सक्रिय पोषण किया । संस्कृत से प्राप्त प्रेरणा से ही भारोपीय जगत् पोषित हुआ । आयोग लिखता है कि शिवज्ञान मुनिवर ने प्राचीनतम तामिल व्याकरण ग्रन्थ तोलकप्पियम् की व्याख्या में लिखा है – जिन्होंने संस्कृत नहीं पढ़ी है उन्हें तामिल भाषा का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो सकता ।

एक ऐसी भाषा जिसे आज तक सभी ने सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधने वाला बताया तथा पंडित नेहरू जिसके अन्यतम प्रशंसक रहे हैं और जो निश्चित तौर पर ही क्षेत्रीय भाषाओं की पोषक रही है और इसकी समृद्धि से ये सभी भाषाएं पोषित ही होंगी । उसके संबंध में जिस प्रकार से उसके उत्थान के उपाय किये जाने की चिन्ता छोड़कर लोग विरोध में सड़कों पर निकल आये वह चिन्ता पैदा करता है ।
रही बात संस्कृत के अपने अस्तित्व के संकट की तो इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की हमारी सरकारें जिन्होंने इस भाषा के संरक्षण व संवर्धन और प्रसार के लिए कुछ नहीं किया ।

1986 की शिक्षा पद्धति में संस्कृत को देशनिकाला दे दिया गया था । लेकिन कुछ विद्वत्जनों व न्यायालयीय हस्तक्षेप के कारण यह भाषा शिक्षा का अंग बनी रही । आज भी इस भाषा को किसी भी प्रकार से हटाने के लिए गुपचुप प्रयास जारी हैं । हमारे यहां जर्मनी , चाईनीज जैसी भाषा पढ़ाने व पढ़ने के लिए तो सरकार प्रयासरत है लेकिन संस्कृत के लिए नहीं । प्रशंसा करने की जहां बात है तो हर व्यक्ति इस भाषा को सराहने की बात करता है । जिस भाषा को डाॅ अम्बेडकर ने राष्ट्रभाषा बनाने का सपना देखा था लेकिन बी पी मौर्य आदि के ही विरोध के कारण वे इस भाषा को इसका उचित स्थान नहीं दिला पाये तथा भले ही बाद में उन बी पी मौर्य आदि विरोधियों ने भी अपने इस विरोध पर अफसोस जताया था वह अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है । भाषाएं सरकारी प्रयासों से जिन्दा रहती हैं जबकि अन्य संगठन भाषाओं के प्रसार में गुणात्मक वृद्धि करते हैं । जैसे आज इजराईल भी अपनी लुप्तप्राय भाषा हिबू्र को बचाने के लिए प्रयासरत है ।

संस्कृत के साथ सबसे पहला छल उस अध्ययन व्यवस्था के द्वारा किया गया जिसे आज बी ए , एम ए के रूप में विश्वविद्यालयों में संचालित किया गया है । संस्कृत भारत में अंग्रेजी व्यवस्था की चालाकी का इस तरह शिकार हुई कि कोई समझ ही नहीं पाया । देश के परंपरागत विश्वविद्यालयों से हटकर अन्य विश्वविद्यालयों में जहां आधुनिक शैली की संस्कृत बी ए , एम ए आदि की उपाधियां दी जाती हैं । आप अधिकांश विश्वविद्यालयों में संस्कृत पाठ्यक्रमों में हिन्दी , अंग्रेजी या संस्कृत तीनों माध्यमों से परीक्षा दे सकते हैं । क्या अंगे्रजी बी ए व एम ए में यह हो सकता है कि इस कक्षा का छात्र हिन्दी , अंग्र्रेजी या संस्कृत में यह परीक्षा उत्तीर्ण कर ले । कदापि नहीं । इन विश्वविद्यालयों में संस्कृत में एम फिल् एवं पी एच डी तक वर्षों से हिन्दी मंे लिखी जा रही हैं । यदि आप दिल्ली विश्वविद्यालय के तमाम शोधप्रबन्धों को देखें तो आपको एक प्रतिशत शोधप्रबंध भी संस्कृत में नहीं मिलेंगे । क्या अंग्रेजी का शोधप्रबंध आपको हिन्दी में मिल सकता है ?

यह लेखक भी जब इस विद्यालय से संस्कृत में शोधप्रबंध लिखने लगा तो इससे भी यह कहा गया कि आप हिन्दी में लिखें क्योंकि हिन्दी सबके समझ आती है। किसी भी भाषा में किया गया कोई डिप्लोमा हो या डिग्री, वह तब तक बेकार है जब तक छात्र को वह भाषा नहीं आ पाती । यह चतुराई इस भाषा के साथ की गई । यह ठीक ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्तित्व के सभी गुणों का दोहन कर लिया जाये लेकिन उसका अपना अस्तित्व ही न पनपने दिया जाये । इस भाषा में अन्तर्निहित ज्ञान का पूर्ण लाभ उठाया गया लेकिन शिक्षा व्यवस्था ऐसी कर दी गई कि एक सामान्य एम ए उत्तीर्ण छात्र इस भाषा पर सामान्य सा भी पूर्ण अधिकार प्राप्त न कर सके । कुछ लोग इसके साथ यह तर्क जोड़ सकते हैं कि इस व्यवस्था से वे लोग भी संस्कृत पढ़ सकते हैं जिनकी मानसिक क्षमता इतनी नहीं है कि वे संस्कृत पढ़ सकें । वे भी संस्कृत भाषा में निहित ज्ञान व इसके महत्व से परिचित हो सकते हैं इसलिए यह जरूरी है । लेकिन क्या वे लोग यह कह सकेंगे कि विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विषय में किया जाने वाला बी ए या एम ए भी इसलिए हिन्दी माध्यम से परीक्षा दिये जाने वाला बना दिया जाना चाहिये ताकि अन्य लोग भी अंग्रेजी में निहित ज्ञान का लाभ उठा सकें ? क्या छात्रों केा इस संदर्भ में हिन्दी में अनुवादित अंग्रेजी पुस्तकें उपलब्ध करायी जा सकेंगी ? स्वाभाविक है कि इसका कोई उत्तर नहीं है ।

इन विश्वविद्यालयों के तमाम शोधपत्र भी हिन्दी में ही प्रकाशित होते हैं । यदि इस प्रकार संस्कृत शास्त्रों में उपलब्ध ज्ञान को जनता तक पहुंचाना है तो फिर वह तो हिन्दी व अन्य पाठ्यक्रमों में भी इस ज्ञान को शामिल करके उपलब्ध कराया जा सकता है । इसलिए बिना संस्कृत में दक्षता की व्यवस्था किये बिना इस प्रकार से संस्कृत पढ़ाया जाना एक प्रकार का भाषायी षड्यन्त्र ही है । यदि कोई विश्वविद्यालय नाममात्र के लिए कोई एक आध प्रश्नपत्र अनुवाद के नाम पर संस्कृत में रख भी देता है तो यह भी एक छल ही है । इस पर कुछ आश्चर्यजनक नवीन तथ्य ये भी हैं कि यदि परंपरागत विद्यालयों से संस्कृत माध्यम से आचार्य पास करने वाला कोई छात्र इन विश्वविद्यालयों से एम फिल् या पी एच डी करना चाहता है तो उसे एम ए करने को कहा जाता है । यानि संस्कृत माध्यम से आचार्य को ये एम ए के समकक्ष या इन उच्च पाठ्यक्रमों एम फिल् या पीएच डी में प्रवेश लायक नहीं मानते ।

एक और नवीन तथ्य यह है कि यहां पर बी ए आॅनर्स संस्कृत में आप हिन्दी संस्कृत या अंग्रेजी में भी परीक्षा तो पास कर ही सकते हैं लेकिन सब्सिडरी सब्जेक्ट के तौर पर आपको अंग्रेजी भी लेनी है और पास करना अनिवार्य है । यानि कि आप अंग्रेजी तो समझ लें लेकिन संस्कृत जानना अनिवार्य नहीं है । या आप स्वच्छन्द हैं कि आप संस्कृत में परीक्षा दें या न दें । इस कारण बहुत से छात्र जीवनभर इस पीड़ा से भी पीड़ित रहते हैं कि इन्हें संस्कृत नहीं आती । निश्चित तौर पर भाषा के विषय में यदि आप ऐसी स्वच्छन्दता देेंगे तो वह भाषा तो नहीं ही पनपेगी जिसके लिए आपके ये तथाकथित प्रयास हैं ।

दिल्ली संस्कृत अकादमी के द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक संस्कृत पत्रिका संस्कृतमंजरी जो अब तक संस्कृत में छपती थी वह पिछले कुछ समय से पचास प्रतिशत से अधिक हिन्दी में छपने लगी है । हालांकि उसमें लेख संस्कृत से संबद्ध ही होते हैं । उस पर भी ऐसे लोग मुख्यपदों पर आये हैं जो इसी संस्कृतेतर परंपरा का समर्थन करते हैं । और अब वे अपने उन आधुनिक विद्वानों के ही हिन्दी में लिखे तथाकथित संस्कृत शोधपत्र व लेख आदि छापना पसंद किया करते हैं । क्या आप अंग्रेजी या हिन्दी की पत्रिका में संस्कृत के लेख इस प्रतिशत तक समाहित कर सकते हैं ?

संस्कृत के साथ दूसरा बड़ा अन्याय वर्तमानकालिक उन विद्वानों द्वारा किया गया जिन्होंने संस्कृत को पाणिनी के वरदानस्वरूप उसके व्याकरण में आज तक बांधा तो रखा जो इस भाषा के लिए और विश्व के लिए गौरव की बात है लेकिन बदलते समय में जब भाषा पर संकट आ खड़ा हुआ तो उन्होंने इसके लिए कट पेस्ट या काॅपी पेस्ट के समय के हिसाब से कोई नया तरीका नहीं खोजा । नया तरीका खोजने का तरीका ऐसा नहीं होना चाहिये था जो इसके मूलस्वरूप से छेड़छाड़ करता लेकिन जिस प्रकार आज के दौर में संस्कृत अकादमी उत्तराखंड द्वारा हाईस्कूल की परीक्षा में हिन्दी के साथ जो संस्कृत पढ़ाई जा रही है उसमें कुछ परिवर्तन किया गया वह प्रशंसनीय है । सन्धि व समास जो इस भाषा की अमूल्य निधि है वही छात्रों की सबसे बड़ी समस्या बनी है और इसका निदान हमें इस संस्कृत में मिल जाता है हालांकि इसके साथ ही यह परिवर्तन नवीं दसवीं की कक्षाओं में पढ़ाई जा रही संस्कृत में भी होना चाहिये था क्यांेंकि आप जनभाषा बनाने के लिए किसी भाषा को इतना कठिन नहीं बना सकते कि उसे पढ़ने पर छात्र स्वयं उसके कठिन सन्धि समास से परेशान होकर उसे पढ़ना ही छोड़ दे । पाठ्यक्रम को इस प्रकार बनाया जाये कि उसमें विषय ज्यादा विस्तृत रूप से उभरकर सामने आये लेकिन यह सरल हो ।

विद्वान् बनने के अन्य रास्ते उपलब्ध हो सकते हैं जो छात्र स्नातक स्तर पर अपना सकता है । लेकिन अंग्रेजी जैसी सरल भाषा के बराबर या आसपास खड़े होने के लिए संस्कृत केा भी अपनी लकीर बड़ी करने के लिए अपने स्वरूप को सरल बनाना पड़ेगा लेकिन अपने मूलस्वरूप को क्षति पहुंचाये बिना ही । यानि यदि यहां चलित्वा का अर्थ चलकर है तो चलित्वा चलित्वा ही रहे लेकिन छात्र इस शब्द तक जल्दी पहंुच जाये । अंग्रेजी के विरोधमात्र से यदि हम यह समझें कि संस्कृत का भला हो जाएगा तो यह आवश्यक नहीं है । एक बार नासा द्वारा आमंत्रित विद्वानों ने कुछ वर्ष पूर्व सिर्फ अपनी पुरातन सोच के कारण नासा के संस्कृत सिखाने के अनुरोध को ठुकरा दिया था । नासा ने तो अपनी व्यवस्था कर ली लेकिन संस्कृत अपनी अवस्था खोती जा रही है ।

दसवीं जैसी कक्षाओं में छात्र संस्कृत तो लेते हैं लेकिन मात्र अंकवृद्धि के लिए । ये छात्र भी मानते हैं कि संस्कृत कठिन है । लेकिन यदि संस्कृत को सरल बनाया जाता और इस भाषा के प्रश्नोत्तर विश्लेषणात्मक शैली में हिन्दी अंग्रेजी की तरह सरल संस्कृत में भी लिखने की दक्षता छात्रों में पैदा की जाती तो कदाचित् इस भाषा को ज्यादा लाभ होता । संस्कृत में मात्र जिन कथा कहानियों को पढ़ाकर इसे मात्र नैतिक शिक्षा का ही माध्यम बना दिया गया और हम इसका गुणगान ही करते रहे इसकी अपेक्षा यदि वास्तुशास्त्र , योगशास्त्र और आयुर्वेद आदि विषयों को भी सरल संस्कृत में विश्लेषणात्मक पद्धति से पाठ्यक्रम का अंग बनाया जाता तो कदाचित् सरल रूप में ही सही लेकिन समाज का यह अंग तो बनती । संस्कृत समाज ने कभी इस दिशा में प्रयास नहीं किया कि हाईस्कूल व इण्टर जैसी कक्षाओं में पाठ्यक्रम कुछ इस प्रकार से बनाया जाये ताकि छात्र को यह लगे कि यह उसके जीवन का हिस्सा बन सकती है ।

सिर्फ कविता रचने व साहित्य सृजन से ही हम रोजगार पैदा नहीं कर सकते । हिन्दी अंग्रेजी में किया गया साहित्यसृजन तो कुछ धन के अर्जन में सहायक बन भी सकता है लेकिन संस्कृत में किया गया साहित्य कितना धन इसके रचनाकार के लिए जुटा सकता है इस पर कुछ लिखने से पूर्व ही हम सबको समझ जाना चाहिये । इसलिए यदि आयुर्वेद इन कक्षाओं का हिस्सा बने और इन कक्षाओं को संस्कृत पढ़ने की छूट दी जाये तो कम से कम बी ए एम एस जैसे पाठ्यक्रम के लिए यह उन छात्रों को सहयोग करेगा और छात्र संस्कृत पढ़ने की दिशा में कुछ सोच सकते हैं । लेकिन यह सरल संस्कृत में ही प्रस्तुत किया जाना चाहिये । इसी प्रकार वास्तु और योग व अन्य विषय भी शिक्षा व पाठ्यक्रम का हिस्सा बन सकते हैं ।

कुल मिलाकर विचारणीय बात यह है कि जिस देश में हिन्दी जैसी भाषा अपने बोलने वालों की संख्या अंग्रेजी से भी ज्यादा बढ़ते रहने के बावजूद अपने अस्तित्व की चिन्ता कर रही है वहां संस्कृत के वर्तमान हालात चिन्ता तो पैदा करते हैं आश्चर्य पैदा नहीं करते । जरूरत इस बात की है कि इसी आश्चर्य को महसूस किया जाये और मात्र चिन्ता ही नहीं प्रयास भी किये जायें जिसमें चरित्र निर्माण व रोजगार दोनो के ही प्रयास किये जाएं ।

डॉ. द्विजेन्द्र वल्लभ शर्मा

आचार्य - संस्कृत साहित्य , सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय , वाराणसी 1993 बी एड - लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ , नयी दिल्ली 1994, एम ए - संस्कृत दर्शन , सेंट स्टीफेंस कॉलेज , नयी दिल्ली - 1996 एम फिल् - संस्कृत साहित्य , दिल्ली विश्व विद्यालय , दिल्ली - 1999 पी एच डी - संस्कृत साहित्य , दिल्ली विश्व विद्यालय , दिल्ली - 2007 यू जी सी नेट - 1994 जॉब - टी जी टी संस्कृत स्थायी - राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय , केशवपुरम् , दिल्ली 21-07-1998 से 7 -1 - 2007 तक उसके बाद पारिवारिक कारणों से इस्तीफा वापस घर आकर - पुनः - एल टी संस्कृत , म्युनिसिपल इंटर कॉलेज , ज्वालापुर , हरिद्वार में 08-01-2007 से निरंतर कार्यरत पता- हरिपुर कलां , मोतीचूर , वाया - रायवाला , देहरादून

2 thoughts on “संस्कृतविरोध के मायने

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. संस्कृत का विरोध करने का कोई औचित्य नहीं है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अच्छा लेख .

Comments are closed.