धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

इन्द्र का अहंकार

बृजवासियों ने इंद्र का पूजन नहीं किया तो अपने अहंकार में चूर होकर अपना कोप वृन्दावन वासियों पर बरसाने लगा, ऐंसा अहंकार कि मनुष्यों द्वारा पूजित ना होने पर अपने मद में चूर होकर उसने सारे बृजधाम को डुबोने का मन बना लिया, अहंकार में अँधा होना किसी के लिए भी हानिकारक है, फिर देव हो, मनुष्य हो, गन्धर्व हो, असल में अहंकार विवेक को हर लेता है, मद में चूर होकर किसी पर अपनी शक्ति का बलात प्रदर्शन करना ये अहंकार की निशानी है, स्वर्गाधिपति का कोप बढ़ता गया..,क्या जो हमे पालता है उसकी पूजा करना गलत है? कन्हैय्या ने यही तो समझाया था कि गोवर्धन पर्वत हमारी गायों को चारा देता है, हमें कृषि करने के लिये स्थान देता है, उस चारे से हमारी गौमाता मीठा मीठा दूध देती हैं, जिससे बृजवासियों की आजीविका चलती है, पर्वतराज गोवर्धन पूजनीय हैं, उचित समय पर वर्षा करना तो इंद्र का धर्म है इसमें देवराज की पूजा के लिए यज्ञ करना इतना धन लुटाना कहाँ तक सही है?

govardhan

कृष्ण सामाजिक बुराइयों और कुप्रथाओं के बिलकुल विपक्ष में खड़े हैं, वे बुराइयों को समाज से निकालकर धर्म को पुनर्स्थापित करने ही धरा पर अवतरित हुए हैं, बृजवासियों को आज मदांध इंद्र के कोप का भाजन बनना पड़ा…इंद्र ने ऐसी भीषण वर्षा की कि गाँव की गाँव, घर के घर डूबने लगे, ऐसी भयंकर बरसात कि वनों, खेतों, खलिहानों में भयंकर बाढ़ आ गयी, खड़े रहे तो बस पर्वतराज गोवर्धन…यहाँ भी बड़ी लीला है, जिस अहंकार के मद में चूर इंद्र सम्पूर्ण बृज को जलमग्न कर देना चाहता है, उसी बृज को आसरा देने बृजवासियों का पालनहार गोवर्धन अडोल खड़ा है, स्थित है इंद्र का कोप उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता, कृष्ण समझ गये हैं ये अवसर इंद्र के मद का संहार करने का है, देवों के राजा का अहंकार मिटाना बड़ा आवश्यक है वरना इससे एक गलत सन्देश समाज को जा सकता है कि वे देवता जिनपर मनुष्य श्रद्धा रखते हैं उनका राजा ऐसा अहंकारी और मद में चूर रहने वाला है तो फिर कौन देवों पर विश्वास रखेगा…उन पर आस्था खत्म होने से मनुष्यों में बुराइयां बढेंगी, तामसिक शक्तियाँ अधिक प्रभावित करेंगी…लीला करने का यही समय है….

कृष्ण महानायक हैं..वे स्वयं कहते हैं इस संसार का कोई कार्य ऐसा नहीं जो वो नहीं कर सकते या जो उनके लिए दुष्कर हो….इसीलिए कृष्ण ने उसी पर्वत को अपनी कनिष्ठ ऊँगली पर उठाकर…इंद्र के कोप से बृजवासियों को बचाया…कैसा संयोग है धरा को जलमग्न होने से बचाने हेतु ‘जल तत्व’ से परिपूर्ण कनिष्ठ ऊँगली से ही इतना विशाल गोवर्धन उठा लिया….इंद्र का अहंकार अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया है…उसका क्रोध, उसका मद इतना बढ़ गया कि उसने वर्षा और तेज कर दी किन्तु कृष्ण अपनी छिंगली में पर्वत को उठाये खड़े हैं, उनके आगे इंद्र की एक नहीं चल रही है, कृपासिन्धु ने बृजवासियों को जीवनदान दिया है…सब नाच रहे हैं, प्रफुल्लित हो रहे हैं, पुलकित हो रहे हैं, कृष्ण की जय जयकार धरा पर हो रही है…उधर इंद्र का अहंकार ये सब देखकर चूर चूर हो गया है…

देवर्षि बृहस्पति, ब्रह्मदेव के समझाने पर इंद्र ने वर्षा रोक दी है, वो ग्लानी से भर गया हिया…कृष्ण को एक साधारण ग्वाला समझने की भूल करने वाला उनके चरणों में बार बार नमस्कार कर रहा है,,बार बार “अक्षरम परमं ब्रह्म ज्योतिरूपं सनातनम” मन्त्र का उच्चारण करता..त्राहिमाम त्राहिमाम करता जगदीश्वर के चरणों में आ गिरा है….उसे भान हो गया कि कृष्ण कोई और नहीं स्वयं सच्चिदानंद हैं….दयासिन्धु ने इंद्र को भी उसके धर्म का भान करवाया कि सहीं समय पर वर्षा करना उसका धर्म है…इसके लिए पूजित होना और उसका अहंकार करना गलत है….. इंद्र प्रभु के श्रीचरणों में बारम्बार प्रणाम कर रहा है…कमल नयन से अपनी आँखें मिलकर बात करने का साहस उसमे नहीं है वो बस चरणों को अश्रुओं से धोये जा रहा है…

कृष्ण इस संताप से प्रायश्चित के भाव से संतुष्ट हैं, उनका काम हो गया है! इंद्र ने उनसे विदा ली और देवलोक में वापस आ गया….!! माँ कामधेनु प्रकट हुयीं और प्रभु को प्रणाम कर स्तुति करती हुयी बोलती हैं…”हे नंदनंदन आपने इंद्र के कोप से सभी बृजवासियों के साथ साथ गायों की भी रक्षा की है…इसीलिए आपके अनंत नामो की सूची में एक नाम मैं भी अपनी पूरी श्रद्धा से समर्पित करना चाहती हूँ…आप आज से गायों के इंद्र हुए..इसीलिए आपको गोविन्द नाम समर्पित करती हूँ…” इस तरह करुणाकर, मदन मुरारी को “गोविन्द” नाम भी आज श्री चरणों में समर्पित हुआ..!!!

श्री कृष्णा गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव:

जय श्री कृष्ण !

________ सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

One thought on “इन्द्र का अहंकार

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख.

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