सामाजिक

प्रायश्चित और ध्यान-परिवर्तन द्वारा संभव है धूम्रपान से मुक्ति

अपनी आत्मकथा के पहले भाग के ‘‘चोरी और प्रायश्चित’’ खण्ड में गाँधीजी लिखते हैं, ‘‘अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लगा। हमारे पास पैसे नहीं थे। हम दोनों में से किसी का यह ख़्याल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फ़ायदा है अथवा उसकी गंध में आनंद है। पर हमें लगा कि सिर्फ़ धुआँ उड़ाने में ही कुछ मज़ा है। मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हें और दूसरों को धुआँ उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूँकने की इच्छा हुई।’’ अपने इस शौक को पूरा करने के लिए गाँधीजी और उनके रिश्तेदार ने काकाजी की जूठी बीड़ी चुराकर पीने तथा नौकर के पैसे चुराकर बीड़ी ख़रीदने का अपराध भी किया।

बाद में गाँधीजी ने अपनी हर ग़लती के लिए प्रायश्चित किया और हर ग़लत आदत से मुक्ति पाली। गाँधीजी ने लिखा है, ‘‘फिर बड़ेपन में बीड़ी पीने की कभी इच्छा नहीं हुई। मैंने हमेशा यह माना है कि यह आदत जंगली, गंदी और हानिकारक है। दुनिया में बीड़ी का इतना जबरदस्त शौक क्यों है इसे मैं कभी समझ नहीं सका हूँ। रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बीड़ी पी जाती है वहाँ बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है और उसके धुएँ से मेरा दम घुटने लगता है।’’ वास्तव में धूम्रपान में कोई आनंद है ही नहीं। मात्र दूसरों की देखादेखी हम धूम्रपान करना शुरू कर देते हैं और यह एक आदत बन जाती है। हम इस निरर्थक हानिकारक क्रिया को बार-बार दोहराने को विवश हो जाते हैं।

फिर भी हम धूम्रपान क्यों करते हैं? अवचेतन मन में व्याप्त विभिन्न दबावों के वशीभूत होकर ही व्यक्ति धूम्रपान करता है। यदि व्यक्ति अवचेतन मन में व्याप्त दबावों से मुक्त हो जाए तो धूम्रपान से मुक्ति संभव है। और इसके लिए व्यक्ति की मानसिकता अथवा सोच में परिवर्तन ज़रूरी है। यदि धूम्रपान की इच्छा के समय व्यक्ति उन घटनाओं अथवा दृष्यों की कल्पना करे जो स्वाभाविक रूप से मन को शांत करती हैं तो व्यक्ति की धूम्रपान की तलब या ललक अपेक्षाकृत कम या समाप्त हो जाती है।
धूम्रपान की तलब या ललक को कम या समाप्त करने के लिए प्राकृतिक सौंदर्य के विभिन्न उपादानों के बारे में साचिये और उनसे एकाकार होने का प्रयास कीजिये। ख़ूबसूरत बर्फ़ से ढंकी ऊँची-ऊँची पर्वत शृंखलाओं, हरी-भरी सुरम्य वादियों, कलकल बहते झरनों और इठलाती-बलखाती पर्वतीय नदियों के बारे में साचिये। गहरे-घने जंगलों, विस्तृत हरे-भरे मैदानों, शांत-सलोनी झीलों और उनमें कलरव करते रंग-बिरंगे पक्षियों के ध्यान में खो जाइय। रसीले फलों और सुगंधित पुष्पों से लदे वृक्षों, फूलों की क्यारियों और अपने आस-पास के ख़ूबसूरत बाग-बगीचों को अपने निकट अनुभव कीजिये। पर्वतीय नदियों और बर्फीले झरनों के शीतल जल तथा गंधकयुक्त सोतों के ऊष्ण जल के बारे में कल्पना कीजिये, उनमें डुबकियाँ लगाइये। अपने अंदर प्रसुप्त सुंदरतम भावों को जगाइये, उन्हें बाहर लाइये। इन सब के मध्य व्यसनों और विकारों का कोई स्थान नहीं और यह संभव है ध्यान द्वारा। ध्यान-परिवर्तन धूम्रपान से मुक्ति का सर्वोत्तम साधन है।

ध्यान का अर्थ ही है अनपेक्षित, अनुपयोगी घातक नकारात्मक मनोभावों से मुक्त होकर सकारात्मक उपयोगी मनोभावों से युक्त होना। जिस साधन या माध्यम से यह प्रक्रिया सम्पन्न हो जाए वही ध्यान है। यदि साधना की प्रक्रिया में ऐसा नहीं होता तो घंटों आँखें मूँदकर बगुला भगत बने बैठे रहना निरर्थक होगा। ध्यान वास्तव में वही है जो मनोभावों के उचित रूपांतरण में सक्षम और सहायक हो। ध्यान परिवर्तन द्वारा मन का परिवर्तन और मन के परिवर्तन द्वारा तन का परिवर्तन अर्थात् ध्यान द्वारा ही संपूर्ण उपचार की प्रक्रिया सम्पन्न होती है।

हम सब जानते हैं कि धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। आप अपने अच्छे स्वास्थ्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व की कल्पना कीजिये और मन में दोहराइये, ‘‘मैं पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ तथा मेरा व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक है।’’ इस विचार की कंडीशनिंग या इस विचार के स्थायी हो जाने पर धूम्रपान, मद्यपान अथवा अन्य किसी भी व्यसन का अस्तित्व टिक ही नहीं सकता। हर विचार को एक स्वीकारोक्ति के रूप में लीजिये तथा सकारात्मक स्वीकारोक्ति के रूप में और यह सकारात्मक स्वीकारोक्ति भी वर्तमान में ही करनी अनिवार्य है।

सीता राम गुप्ता

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