लघुकथा

लछमी का निरादर

१९९० की बात है दिवाली के समय हम भारत आ पुहंचे .अक्सर दिवाली हम भारत आ कर ही मनाते थे .दिवाली के दिन मैं अपने पुराने साथिओं के साथ गाँव के बाज़ार में घूम रहा था और सभी लोगों को सत सिरी अकाल और नमस्ते बोल रहा था .मन बहुत खुछ था .ऐसे मालूम हो रहा था जैसे मैं जेल से छूट कर आया हूँ . मठाई और पटाखों की दुकानों पर भीड़ थी .पटाखे चल रहे थे .तभी मैंने देखा एक शख्स जिस को अधरंग हुआ मालूम होता था धीरे धीरे छड़ी के सहारे चला आ रहा था और उस का चेहरा भी कुछ अजीब सा लग रहा था . मैंने गौर से देखा और दोस्त से पूछा यार ! यह केशो तो नहीं है ? दोस्त बोला , हाँ हाँ वोही तो है .मेरे दिमाग में एक दम बचपन का वोह दिवाली का सीन याद आ गिया जब यही केशो अपने बदमाश दोस्तों के साथ जुआ खेल रहा था . उस समय केशो बहुत तगड़ा और बदमाश हुआ करता था . बड़ी बड़ी मूंछें और कंधे पर राइफल रखता था .पांच छी उनके दोस्त जिन के पास भी राइफलें थीं उस दिवाली के रोज़ शराब पी रहे थे और जुआ भी खेल रहे थे . इर्द गिर्द देखने वालों की काफी भीड़ थी .केशो हारता चला जा रहा था . जब उस के सभी पैसे ख़तम हो गए तो उस ने अपनी गाए भैंसें यहाँ तक कि अपना घर भी दाओ पे लगा दिया लेकिन केशो वोह भी हार गिया . तब केशो के दोस्त कहने लगे , अब आखरी दाओ लगा दे और अपनी बीवी ( जो केशो कहीं से खरीद कर लाया था ) को दाओ पे लगा दे. अगर तुम जीत गए तो तुमारा सब कुछ वापिस कर देंगे , अगर तुम हार गए तो हम तुमारी बीवी को ले जायेंगे . पहले तो काफी गाली गलौच हुआ , फिर कुछ देर बाद केशो ने एक शराब का ग्लास भरा और एक दम पी गिया और अपनी बीवी को दाओ पे लगा दिया जो वोह भी हार गिया . गाँव में शोर मच गिया कि केशों ने बीवी जुए में हार दी है और बदमाश उस की बीवी को घर से उठाने के लिए उस के घर की ओर जा रहे हैं . गाँव के लोग किर्पाने बरछे ले कर जमा हो गए . लोग ऊंची ऊंची शोर मचा रहे थे और बदमाशों को गालिआं दे रहे थे और बोल रहे थे कि यह गाँव की इज़त का सवाल है . वोह ऐसा नहीं होने देंगे . बदमाशों ने खतरा लेना ठीक ना समझा और गाँव छोड़ कर चले गए . दुसरे दिन पुलिस ने आ कर केशो को पकड़ लिया और उसे थाणे ले गए लेकिन उस की बीवी यह बेइजती सहार ना सकी और उस ने आत्महत्या कर ली .
मेरे मुंह से अचानक निकल गिया , यह तो होना ही था , दिवाली के दिन लछमी का निरादर जो हुआ था . मेरा दोस्त मेरा हाथ पकड़ कर बोला , किया बोल रहे थे ? कुछ नहीं कह कर मैं दोस्त के साथ आगे बड गिया .

2 thoughts on “लछमी का निरादर

  • मनजीत कौर

    भाई साहब बहुत ही सुन्दर कहानी की रचना की आप ने | दीपावली के पावन अवसर पर , कई जग्य जुए खेले जाते है शराबे पी जाती है मार पीट , लड़ाई झगडे होते है | ऐसे लोग ऐसे पावन त्यौहार को भी नहीं बख्शते त्योहारो के असली मन्तव् को भुला कर , राक्षसो जैसे काम करते है अपनी बीवी को जुए में हारना एक घटिआ आदमी की ही सोच हो सकती है । जब की श्री राम चन्दर जी ने अपनी पत्नी सीता को अगवा करने वाले राक्षश” रावण ” का वध किया और अपनी पत्नी को पूरे आदर सन्मान से , सुरक्षित वापिस ला कर अपना पति धर्म निभाया | दुनिया में सबी मर्दो को एक आदर्श और अच्छा पति बनने की शिक्षा दी । पर उनकी इस शिक्षा को भुला कर ऐसे लोग असुरो वाले काम करते है बहुत अफ़सोस की बात है |

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कहानी, भाई साहब. जुआ और शराब दोनों का नशा बहुत घातक होता है. इससे बचना ही अच्छा है.

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