कविता

प्रकाश पर्व फिर आया है

कुछ दिन पूर्व रचित मधु गीत (बंगला – हिन्दी रूपान्तर के साथ, हिन्दी व उर्दू ) द्वारा भाव गंगा में डुबकी लगाइए:

१. आलो आवार फिरिये एलो

आलो आवार फिरिये एलो, दु:खेर बेला चलिये गेलो;

सुखेर कली खुलिये गेलो, काँटार कान्ति सूखिये गेलो ।

निराशाय रस भरिये गेलो, आशार दूत पाशे ताकाइलो;

आँखी मेले चेये गेलो, अश्रुर धारा सरिये गेलो ।

मरु भूमिते जागिलो तृण, सब्ज़ हये गेलो धरार आँचल;

पुष्पे साजाइते लता पता एलो, वाताशे कुहके पुलक भरे दिलो ।

अनमना मन सुनयना हलो, सुर सुधाइलो स्वरउ पाइलो;

नृत्य करिलो नत हइलो, मृत्युर गतिते जीवन पाइलो ।

असुरेर मन सुरे भरे गेलो, वृत्ति अशुभ शुभ गति पेलो;

मृग मरीचिकाते ‘मधु’ ओरा पेलो, आलोकेर अतिथिके जाना-शोना हलो ।

(रचना दि. १२ अगस्त २०१४ मंगलवार)

प्रकाश पर्व फिर आया है (हिन्दी रूपान्तर)

प्रकाश पर्व फिर आया है, दुःख की वेला चली गयी है;
सुख की कली खुल गयी है, काँटों की कान्ति सूख गयी है.

निराशा में रस भर गया है, आशा का दूत पाश आकर ताक रहा है;
स्नेह से आँख मिला कर देख गया है, अश्रु की धारा को दूर कर दिया है.
मरू भूमि में त्रण जग गए हैं, धरा का आँचल हरा हो गया है;
लता पात पुष्प सजाने आगये हैं; वाताश कुहक कर पुलक भर दी है.

अनमना मन सु- नयना हो गया है, सुर सुधाकर स्वर पागया है;
नृत्य करके नत हो गया है, मृत्यु की गति में जीवन पा गया है.
असुरों का मन सुर से भर गया है, अशुभ वृत्तियाँ शुभ गति पा गयीं हैं;
मृग मरीचिका से वे ‘मधु’ पा गयीं हैं, आलोक के अतिथि से परिचय होगया है.

(स्वरचित हिन्दी रूपान्तर दि. २३ अक्तूबर, २०१४ )

One thought on “प्रकाश पर्व फिर आया है

  • विजय कुमार सिंघल

    बंगला कविता और उसका हिन्दी भावानुवाद प्रशंसनीय है.

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