इतिहास

महात्मा नारायण स्वामी का आदर्श जीवन : प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय

महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत आर्य विचारधारा में वह प्रभाव शक्ति है जिसका अनुकरण अनुसरण करने पर एक सामान्य व्यक्ति दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत कर देश, धर्म एवं समाज की सर्वोत्तम सेवा करने के साथ उनका प्ररेणास्रोत बनकर स्वयं के जीवन को धन्य बना सकता है। यह शब्द महात्मा नारायण स्वामी के जीवन में पूर्णतया चरितार्थ हुए देखे जा सकते हैं।

संन्यास ग्रहण करने से पूर्व महात्मा नारायण स्वामी जी नारायण प्रसाद के नाम से जाने जाते थे। उनका जन्म विक्रमी संवत् 1922 ईस्वी सन् 1865 की वसन्त पंचमी को अलीगढ़ में मुंशी सूर्य प्रसाद जी के यहां हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा एक मौलवी के पास हुई जिसने उन्हें उर्दू फारसी का अध्ययन कराया। वह उर्दू के अच्छे कवि बन गए। मासिक उर्दू पत्रों में उनकी कविताएं प्रकाशित होती रहती थी। उन्होंने अंग्रेजी भाषा का भी अध्ययन किया। 14 वर्ष की अवस्था होने पर उनके पिता का देहान्त हो गया।

बालक नारायण प्रसाद ने अलीगढ़ में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के दर्शन किए थे। यह घटना सम्भवतः स्वामी दयानन्द जी के अलीगढ़ के 22 से 25 अगस्त, 1878 के अल्पकालीन प्रवास के मध्य घटी। महात्मा जी के ही शब्दों में घटना प्रस्तुत है। वह लिखते है – “एक दिन जब मैं एक अंगेजी स्कूल में पढ़ता था, स्कूल में चर्चा हई कि आज एक बड़े सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती आने वाले हैं। उत्सुकता से बहुत से विद्यार्थी और अध्यापक देखने के लिए स्कूल से बाहर उस रास्ते में जहां से वह गुजरने वाले थे, खड़े हो गए। थोड़ी ही देर में देखा कि एक जोड़ी (बग्घी) में स्वामी जी सवार होकर हम सबके सामने से जा रहे थे। उनके दिव्य एवं चमकते हुए चेहरे के देखने मात्र ही से ऐसा कोई था, जो प्रभावित हुआ हो।“

आर्य समाज में प्रविष्ट होने से पूर्व महात्मा जी शैवमत के अनुयायी थे। वह वर्ष में दो बार व्रत रखते थे। आर्य समाज के विषय में उनकी धारणा थी कि यह लोग हिन्दू समाज में प्रचलित मूर्तिपजा, अवतारवाद एवं फलितज्योतिष आदि का खण्डन करते है। आर्य समाज, मुरादाबाद के सभासद महाशय हर सराय सिंह के सम्पर्क में आकर और उनसे आर्यसमाज के नियम जानकर भ्रम दूर हुआ। उन्होंने महर्षि दयानन्द प्रणीत विश्व की कालजयी रचनासत्यार्थ प्रकाश” को पढ़ा जिसने उनकी आंखे खोल दीं और वह आर्यसमाज के महत्व को समझ सके। स्वाध्याय ने उन्हें यज्ञोपवीत धारण करने की प्रेरणा दी। रामगंगा के तट पर उन्होंने यज्ञोपवीत धारण कर यज्ञ के पश्चात जीवन में कुछ व्रत धारण करने की घोषणा की जिसके अन्तर्गत नित्य प्रति सन्ध्या हवन करना, ईमानदारी एवं परिश्रम से जीविका प्राप्त करना, सद्गृहस्थ की तरह जीवन व्यतीत करना तथा संस्कृत एवं अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्ति के पूर्ण प्रयत्न सम्मिलित थे। एक वर्ष बाद व्रतपालन में पूर्ण सफलता मिलने पर उन्होंने आर्यसमाज मुरादाबाद की सदस्यता ग्रहण की। सन् 1891 में साहू श्यामसुन्दर द्वारा प्रदत्त भूमि, धन एवं अन्यों से संग्रहीत धन से मुरादाबाद में आर्यसमाज मन्दिर का भवन तैयार हो गया। वह समाज के उपमंत्री बनाये गये थे। समाज के वार्षिकोत्सवों में भोजन के प्रबन्ध के कार्य का उत्तरदायित्व उन पर था जिससे वह तत्कालीन प्रमुख आर्य वैदिक विद्वानों एवं नेताओं के निकट सम्पर्क में आए। इन प्रमुख विद्वानों में पं. तुलसीराम स्वामी, पं. लेखराम, लाला मुंशीराम, पं. आर्य मुनि, पं. घनश्याम शर्मा मिर्जापुरी एवं अन्य अनेक मनीषी थे।

महात्मा नारायण स्वामी जी सन् 1919 तक कई वर्षों तक प्रांतीय सभा की अंतरंग के सदस्य रहे और सभा के कार्यों में सक्रिय भाग लेते रहे। आर्यसमाज के विद्वान के लिए संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेजी का ज्ञान अपरिहार्य है। हिन्दी ज्ञान तो आपको था ही, अतः संस्कृत का अध्ययन आपने पं. कल्याण दत्त राजवैद्य से किया। अंग्रेजी अध्ययन में उन्होंने बाबू हरि दास जी अधिवक्ता से भरपूर सहायता ली।

महात्मा नारायण स्वामी ने रामगढ़ तल्ला, जनपद नैनीताल में अपने निवास के लिए 20 मई सन् 1920 को एक कुटिया का निर्माण आरम्भ किया था जोनारायण आश्रम” के नाम से जाना गया। 8 दिसम्बर सन् 1920 को महात्मा जी ने इस आश्रम में प्रवेश किया। निर्माण अवधि में वह ठाकुर कृष्ण सिंह जी की वाटिका में रहे और वहां अपने अस्थायी निवास को उन्होंने पाठशाला का रूप दिया। हम यहां यह बताना भी चाहते हैं कि महात्मा जी उच्च कोटि के साधक थे और योगदर्शन निर्दिष्ट साधना पद्धति का वह अपने जीवन में पूरी तरह से पालन करते थे। उनकी साधना की स्थिति को उनके जीवन में घटित इस घटना से जाना जा सकता है जिसके अनुसार उन्होंने अपेण्डिक्स रोग के जान लेवा आपरेशन में बिना पूर्ण बेहोश हुए आपरेशन करवाकर डाक्टरों को आश्चर्य में डाल दिया था। नारायण आश्रम, रामगढ़ में जाने पर हमें वहां बताया गया था यहां महात्माजी ने केवल उपनिषदों का भाष्य आदि साहित्यक कार्य ही किये अपितु साधना में ही वह अपना अधिकांश समय व्यतीत करते थे। आर्य समाज में उन जैसे उच्च कोटि के साधक कम ही हुए हैं।

संस्था गुरूकुल वृन्दावन ने देश को उच्च कोटि के अनेक विद्वान, साहित्यकार देशभक्त दिए हैं। सन् 1919 में गुरूकुल को फर्रूखाबाद से मथुरा के निकट पौराणिकों के गढ़ वृन्दावन लाया गया था। अतः पोपों की इस नगरी में वेदशास्त्र ज्ञान से शून्य अंहकारी ब्राह्मणों ने इसके विरोघ के साथ यहां के ब्रह्मचारियों एवं शिक्षकों के साथ असभ्यता एवं पशुता के व्यवहार किए। इस स्थिति में महात्मा नारायण स्वामी जी के धैर्य, गुरूकुल के ब्रह्मारियों एवं कुलवासियों की प्रतिक्रिया में प्रेम एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार ने गुरूकुल के सामान्य क्रियाकलापों में स्थानीय पौराणिक बन्धुओं द्वारा उपस्थित की जाने वाली समस्याओं पर नियंत्रण पा लिया गया। महात्मा नारायण स्वामी इस गुरूकुल के सर्वाधिकारी बनाए गए थे। उनके एवं ब्रह्मचारियों के सहयोगात्मक व्यवहार ने जिलाधिकारी मि. डैम्पीयर को गुरूकुल का प्रशंसक बना दिया। यह भी एक तथ्य है कि गुरूकुल वृन्दावन की स्थापना प्रसिद्ध क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप से दान में प्राप्त भूमि पर की गई थी। गांधी जी का भी यहां पदार्पण हुआ था और अपने इस गुरूकुल के प्रवास को उन्होंने महत्वपूर्ण एवं सुखद कहा था। गुरूकुल के संबंध में यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि उसके भवनों का शिलान्यास गवर्नर जेम्स मैस्टन ने किया था। इसके बाद महात्मा जी ने आजीवन अपनी जमा पूंजी रूपये 2,000 के मासिक ब्याज रूपये 13 से जीवनयापन किया। गुरूकुल वृन्दावन में वह जो भोजन किया करते थे, उसका मासिक भुगतान हेतु 10 रूपये देते थे और शेष 2 रूपये में वस्त्र, यात्राएं आदि करते थे। महात्मा जी के त्याग का यह उदाहरण ही इस गुरूकुल की उन्नति का सबसे बड़ा कारण था।

स्वामी श्रद्धानन्द जी की 23 दिसम्बर सन् 1926 को एक धर्मान्ध अब्दुल रशीद द्वारा हत्या किए जाने के पश्चात देश भर में आर्यसमाजों के नगर कीर्तनों और उत्सवों में विघ्न पैदा किए जाने लगे। आर्यसमाजियों की हत्याएं भी सामान्य हो गईं तो दिल्ली में महात्मा हंसराज जी की अध्यक्षता में प्रथम आर्य महासम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में महात्मा नारायण स्वामी ने प्रस्ताव किया कि आर्यसमाज के विरूद्ध जारी हिंसा एवं नगर कीर्तनों आदि में बाधाओं के विरोध में सत्याग्रह किया जाए जिसके लिए 10,000 आर्यवीर भर्ती किए जाएं एवं 50,000 रूपए एकत्र किए जाए। इस प्रस्ताव के अनुसार 10,000 आर्यवीरों की भर्ती एवं धनसंग्रह का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर महात्मा जी ने अपूर्व साहस एवं दूरदर्शिता का परिचय दिया। कुछ समय पश्चात् 10,600 आर्यवीर धर्मरक्षक भर्ती किए गए। इसका श्रेय महात्मा जी के साथ प्रो. रामदेव, स्वामी ब्रह्मानन्द (भैंसवाल) एवं आचार्य परमानन्द (झज्जर) आदि को भी है जिन्होंने महात्माजी को सक्रिय सहयोग दिया। इसी बीच गुरूकुल कांगड़ी के वार्षिकोत्सव के अवसर पर आयोजित आर्य सम्मेलन का महात्माजी को सभापति बनाया गया था।

गुरूकुल वृन्दावन में महात्मा नारायण स्वामी जी एक छप्पर की कुटिया में रहते थे। महात्मा जी ने मुरादाबाद की राजकीय सेवा में जिन पदों पर कार्य किया वहां वह हजारों रूपए कमाए जा सकते थे। वित्तैषणा शून्य महात्माजी ने जीवन भर कभी एक पैसा भी घूस लेकर एक आदर्श प्रस्तुत किया। कलेक्टर पी. हरीसन, जिसके अधीन उन्होंने कार्य किया था, उन्होंने लिखा है कि महात्मा नारायण स्वामी की ईमानदारी में निष्ठा उल्लेखनीय थी। आगे चलकर इन पी. हरिसन ने प्रयाग में एक अंग्रेज भक्त बाबा आलाराम द्वारा आर्यसमाज एवं सत्यार्थ प्रकाश के विरूद्ध स्थापित अभियोग में उनकी जमकर खिंचाई की थी। इसका कारण महात्मा नारायण स्वामी जी के सद्व्यवहार का उन पर प्रभाव था।

फरवरी, 1925 में आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती की जन्म शताब्दी मथुरा में अंतराष्ट्रीय स्तर पर मनाने का निर्णय लिया गया था। गुरूकुल शिक्षा प्रणाली के पुरस्कर्ता, स्वतन्त्रता आन्दोलन के लोकप्रिय नेता एवं शुद्धि आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार स्वामी श्रद्धानन्द सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा एवं शताब्दी सभा के प्रधान थे। आर्य समाज में पार्टीबाजी के कारण सहयोग मिलने की आशंका से स्वामीजी ने 1923 में दोनों पदों से त्याग पत्र दे दिया। दिसम्बर 1923 में सम्पन्न शताब्दी सभा की बैठक में महात्मा नारायण स्वामी जी को सर्वसम्मति से दोनों सभाओं का प्रधान चुना गया। जन्म शताब्दी समारोह 15 फरवरी से 21 फरवरी, 1925 तक आयोजित किया गया। इस आयोजन का महत्व इसी तथ्य से जाना जा सकता है कि इस आयोजन में सम्मिलित होने वाले सरकारी कर्मचारियों को भारत सरकार ने एक सप्ताह का अवकाश प्रदान किया था। प्रांतीय सरकारों एवं देशी रजवाडों ने भी इसी प्रकार की घोषणाएं की थी। रेल विभाग ने इस आयोजन के लिए अनेक स्थानों से विशेष रेलें चलाईं थी। स्थानीय लोगों ने भी समारोह के आयोजकों एवं आगंतुकों का सहयोग एवं व्यापक सहायता की। इन सब कारणों से यह आयोजन भारत के इतिहास मे अपने समय का अभूतपूर्व आयोजन सिद्ध हुआ। मथुरा जंक्शन पर रेलयात्रियों से एकत्र टिकटों के अनुसार 2,54,000 यात्री इस समारोह में उपस्थित थे। अन्य साधनों से की गई गणना करने पर लगभग 4 लाख ऋषि दयानन्द के भक्तों ने इसमें भाग लिया था। जापान, चीन, बर्मा, अफ्रीका, मारीशस, मेडागास्कर, वेस्टइंडीज, जावा, सुमात्रा, फिलीपाइन और अमेरीका आदि देशों के प्रतिनिधि भी इस समारोह में बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए थे। महात्मा नारायण स्वामी जी ने इस उत्सव के विषय में स्वयं लिखा है कि स्त्रियां शायद इतनी स्वतन्त्रता के साथ बेखटके किसी भी मेले में नहीं घूम सकती थीं जितनी स्वतन्त्रता उन्हें इस मेले में थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इतना बड़ा धार्मिक मेला हजारों वर्षों के बाद हुआ। कहीं चोरी की वारदात, ठगी। किसी की गांठ काटी गई और प्रकार से किसी को ठगा गया। भोजन की व्यवस्था भी प्रशंसनीय थी जिसमें सबको पर्याप्त मात्रा में सुविधापूर्वक अति स्वादिष्ट भोजन सुलभ था। छूतअछूत किसी प्रकार का भेदभाव था। इतना बड़ा मेला केवल शिक्षितों का था, कोई मैला कपडा पहने हुए कहीं भी दिखाई नहीं दे सकता था।

मेले में कहीं भी सिगरेट एवं नशीले पदार्थ उपलब्ध नहीं थे। सर्वत्र रामराज्य की स्थिति थी। लाउडस्पीकर का उन दिनों प्रचलन नहीं था। अतः वक्ताओं को अपने स्थान पर मेजों पर खड़ें होकर बोलना पड़ा। 19 फरवरी को जो शोभायात्रा निकली वह भी अभूतपूर्व थी। आर्य जगत के प्रख्यात विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने अपने आत्म परिचय में इस समारोह की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि यहां भोजन में जो स्वाद आया वह फिर कभी नहीं प्राप्त हुआ। इस अवसर पर मथुरा नगर में अभ्यागत आर्यों का जो जुलूस निकला वह अपने आप में अभूतपूर्व था। प्रत्येक नरनारी के हृदय में ऋषि दयानन्द के प्रति जो श्रद्धा और उल्लास इस अवसर पर दिखाई पड़ा वह अन्य किसी शताब्दी समाराह में देखने को नहीं मिला।

शताब्दी समारोह के निर्विघ्न समाप्त होने के पश्चात् आयोजन में उपस्थित आर्य जगत की समस्त विभूतियों एवं भारत और उपनिवेशों के समस्त आर्य नरनारियों की ओर से महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज कार्यकर्त्ता प्रधान श्रीमद्दयानन्द जन्म शताब्दी सभा एवं प्रधान, सार्वदेशिक सभा की सेवा में 20 फरवरी 1925 की एक बैठक में अभिनन्दन पत्र भेंट किया। अभिनन्दन पत्र शाहपुराधीश राजाधिराज सर नाहर सिंह जी ने पढ़ा। आप जो वाक्य पढ़ते थे उन्हें प्रिंसिपल दीवान चन्द जी कानपुर उच्च स्वर से दुहराते थे। अभिनन्दन पत्र में कहा गया था कि जो अथक पुरूषार्थ, जो निःस्पृह तपस्या आपने इस दयानन्द महायज्ञ को पूर्ण करने के लिए की है, उससे हमारा हृदय कृतज्ञता के सच्चे भावों से गद्गद् हो रहा है और हमें निश्चय है कि आपकी आदर्श निःस्वार्थ सेवा, अगली पीढ़ी के लिए दृष्टान्त बनेगी और उसकी विद्युत से जाने कितने युवक हृदय प्रभावित होंगे। आर्यसमाज का गौरव है कि उसमें आप जैसे दयानन्द के सच्चे भक्त विद्यमान हैं। उन्होंने आर्य समाज और उसके प्रवर्तक महर्षि दयानन्द के काम पर सर्वस्व न्योछावर किया है। आपका विशुद्ध उन्नत चारित्र्य, विद्वता, दृढ़ अध्यवसाय, आत्म स्वाध्याय, शांति युक्त कर्मण्यता ये ऐसे गुण हैं जिन्हें हम सब अनुभव कर रहे हैं।

पराधीन भारत में स्वतन्त्र हैदराबाद रियासत में नवाब उस्मान अली द्वारा अपनी 85 प्रतिशत बहुसंख्यक आर्य हिन्दू प्रजा के प्रायः सभी धार्मिक एवं मानवीय अधिकारों के हनन के विरूद्ध आर्य समाज द्वारा लगातार सात वर्ष तक उनके समाधान का प्रयास किया गया। रियासत की साम्प्रदायिक एवं हठधर्मिता की नीति के विरोध में महात्मा नारायण स्वामी जी के नेतृत्व में 3 जनवरी सन् 1939 से शान्तिपूर्ण सत्याग्रह आरम्भ किया गया जो 17 अगस्त 1939 को सफलता प्राप्त कर समाप्त हुआ। हैदराबाद रियासत के भारत में विलय के अवसर पर भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने विलय का सारा श्रेय आर्य सत्याग्रह को दिया। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज ने यदि पहले से भूमिका तैयार की होती तो 3 दिन में हैदराबाद में पुलिस एक्शन सफल नहीं हो सकता था। हैदराबाद में यह पुलिस कार्यवाही 15 से 17 सितम्बर, सन् 1948 के बीच हुई जिसमें रजाकारों के 800 सैनिक मारे गए थे।

महात्मा नारायण स्वामी इस हैदराबाद सत्याग्रह के प्रथम सर्वाधिकारी थे। उनकी प्रथम गिरफ्तारी 31 जनवरी 1939 को हैदराबाद में एवं दूसरी गुलबर्गा में 4 फरवरी, 1939 को हुई। जेल में उन्हें लोहे के भारी कड़े पहनाए गए। 6 फरवरी को उन्हें एक वर्ष की कड़ी कैद की सजा सुनाई गई। जेल जीवन के प्रथम डेढ़ महीनों में आपको प्रतिदिन आठ घंटे कठोर परिश्रम करना पड़ा। वह चरखे पर दो सेर सूत दुहरा करते थे। इस बीच उनका शारीरिक भार 166 से घट कर 161 पौण्ड हो जाने पर काम में छूट दी गई। जेल सुपरिटेण्डेंट उनके आचरण एवं व्यवहार से उनका भक्त बन गया। एक दिन वह अपनी पत्नी और बच्चों को जेल ले गया और महात्मा जी से आग्रह किया कि वह उनके सिरों पर हाथ रखकर उन्हें आर्शीवाद दें। महात्माजी ने उसकी इच्छा पूर्ण की। जेल डायरेक्टर सर हालेंस भी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे। गुलबर्गा के बन्दी जीवन में उन्होंने छांदोग्यउपनिषद का भाष्य किया। वह जेल मे सायं 4 बजे तक उपनिषदों की नियमित कथा भी करते थे। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इस सत्याग्रह में 12,000 गिरफ्तारियां हुई थीं एवं लगभग 30 आर्य वीर जेल जीवन की विपरीत परिस्थितियों एवं यातनाओं के कारण शहीद हुए। इस सत्याग्रह की सफलता के पश्चात् देश भर में महात्मा जी का भव्य स्वागत किया गया एवं उन्हें अभिनन्दन पत्र भेंट किए गए।

महात्मा नारायण स्वामी जी दिसम्बर, 1923 से 1937 तक 14 वर्ष एवं सन् 1941, 1945 से 1947 के वर्षों में सार्वदेशिक सभा के प्रधान रहे। यह कार्यकाल सार्वदेशिक सभा का स्वर्णिम काल रहा। 15 सितम्बर 1939 को आपका रामगढ़ तल्ला, जनपद नैनीताल में अभिनन्दन कर एक हाई स्कूल की स्थापना का निर्णय लिया गया। 1 जुलाई को स्थापित यह स्कूल सन् 1943 में हाई स्कूल बना। स्कूल का नामनारायण स्वामी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, रामगढ़रखकर रामगढ़ की जनता ने महात्मा जी की सेवाओं के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की। हमारा सौभाग्य है कि हमें दो बार इस स्थान पर जाने का अवसर मिला। एक रात्रि को हमने अपने अनेक मित्रों के साथ इसी विद्यालय में शयन किया था। यहीं पर महात्मा जी का एक आश्रम है जो जीर्णशीर्ण अवस्था में है। यह आश्रम पहाडि़यों के मध्य एक नदी के तट पर स्थिति है और आश्रम से लगभग 100 मीटर पर ही अलमोड़ा के लिए राजमार्ग जा रहा है। आश्रम के चहुंओर का दृश्य अत्यन्त मनोहर, भव्य एवं आकर्षक है। हमारा निवेदन है कि हमारी आर्य सभाओं आर्य समाज के धनी ऋषिभक्तों को इसकी सुध लेनी चाहिये और यहां एक गुरूकुल आदि खोलकर इसका पुनरूद्धार करना चाहिये। महात्मा जी के नेतृत्व में काशी विश्वविद्यालय में प्रो. महेश प्रसाद मौलवी की पुत्री कल्याणी देवी को वेद मध्यमा श्रेणी में प्रवेश को लेकर भी आर्य समाज ने अपना समर्थन प्रदान किया था जिसमें सफलता मिली थी।

महात्मा जी ने साहित्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। उनके ग्रन्थों में उनका किया हुआ 11 उपनिषदों का हिन्दी भाष्य, योग दर्शन का भाष्य, आत्म दर्शन, मृत्यु और परलोक, विद्यार्थियों की दिन चर्या, साम्यवाद पर एक ग्रन्थ, आत्मकथा आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं। उनका किया हुआ 11 उपनिषदों का भाष्य आध्यात्म पिपासुओं के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसका प्रकाशन विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली से हुआ है। पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने महात्मा जी की बालोपयोगी प्रभावशाली जीवनी लिखी है।

मुस्लिम लीग सरकार ने सिंध प्रांत में सन् 1944 में आर्यसमाज और मनुष्यमात्र के धर्मग्रन्थसत्यार्थ प्रकाश” के चौदहवें समुल्लास पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसके विरोध में 14 जनवरी 1947 को कराची में महात्मा जी ने सत्याग्रह का शुभारम्भ किया। यहां भी सफलता ने आपके चरण चूमे। गढ़वाल की डोलापालकी प्रथा के अन्तर्गत सवर्णों द्वारा शिल्पकारों के प्रति किए जाने वाले धार्मिक पक्षपात, अन्याय शोषण को भी उनके नेतृत्व में दूर किया गया। शुद्धि, धर्म प्रचार एवं प्लेग रोगियों की सेवा के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण सेवाएं दीं। अपेण्डिक्स के जान लेवा आपरेशन में बिना पूर्ण बेहोश हुए आपरेशन करवाकर आपने डाक्टरों को भी आश्चर्य में डाल दिया था। 82 वर्ष की अवस्था में पेट का कैंसर बरेली में 15 अक्तूबर, 1947 को उनकी मृत्यु का कारण बना। उनकी दिनचर्या और जीवन से अनुमान होता है कि उन्हें धर्म, अर्थ, काम मोक्ष चारों पुरूषार्थों की सिद्धि प्राप्त हुई।

आज आर्यसमाज और देश को महात्मा नारायण स्वामी जी जैसे कर्मठ धर्मसमाज सेवी नेताओं की आवश्यकता है। उनके जीवन का अनुकरण देश की वर्तमान और भावी पीढि़यों को नई दिशा देकर सफलता प्रदान कर सकता है।

मनमोहन कुमार आर्य

One thought on “महात्मा नारायण स्वामी का आदर्श जीवन : प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय

  • विजय कुमार सिंघल

    महात्मा जी के जीवन के बारे में विस्तार से जानकर प्रसन्नता हुई. उनको कोटिशः प्रणाम ! आपको साधुवाद !

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