सामाजिक

मल विसर्जन : देसी या विदेशी

यह आश्चर्य और अत्यन्त दुःख की बात है कि अधिकांश उच्च शिक्षित भारतीय नागरिक अपनी परम्पराओं को अवैज्ञानिक और हेय दृष्टि से देखते हैं और उन्हें त्यागने में गर्व का अनुभव करते हैं l इसके साथ ही साथ पश्चिम की प्रथाओं और रिवाज़ों को बिना जाने और सोचे समझे विज्ञानसम्मत मानते हुए उन्हें अपनाने में अपना बड़प्पन मानने में कतई भी देर नहीं करते हैं l हम भारतीयों को लगने लगता है कि यदि अपनाने में देर कर दी तो पुरातनपंथी होने का टीका हमारे साफ़ सुथरे सुशिक्षित – दीक्षित भाल पर कलंक की तरह हमेशा के लिए चस्पा हो जाएगा l

मल विसर्जन के पाश्चात्य तरीके को ही लें, उसे हमने इतनी तेजी से अपनाया कि सारी दुनिया इस मामले में हमसे पीछे छुट गई l इसे अपनाने के शुरुआती दौर के बाद भी हमारी शरीर विज्ञानियों की बिरादरी चुप्पी साधे बैठी रही l सच कहें तो चिकित्सा विज्ञानियों की लगभग पूरी जमात ने ही इसे बिना आगा पीछा देखे स्वयं भी अपना लिया है l

जबकि अमेरिका के प्रेसिडेंट जिमी कार्टर के एक दिन के कष्ट ने वहां के चिकित्सकों और मीडिया को अपनी ही परम्परा के औचित्य के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया था I यह 1978 के क्रिसमस के कुछ पहले की बात है, जब श्री कार्टर व्हाइट हाउस के अधिकारियों – कर्मचारियों को क्रिसमस पार्टी दे रहे थे I अचानक गम्भीर खूनी बवासीर (सिवियर हिमोरायड्स ) के कारण  अत्यधिक कष्ट और दर्द ने इतना परेशान किया कि उन्हें पार्टी छोड़कर एक दिन की छुट्टी लेना पड़ी और एक शल्यक्रिया से गुजरना पड़ा l इजिप्ट के राष्ट्रपति अनवर सादात ने अपने परम मित्र की व्यथा से उद्वेलित होकर अपने देशवासियों से अपील की कि वे सभी जिमी कार्टर के लिए प्रार्थना करें I इस घटना के कुछ सप्ताह बाद टाइम मैगजीन ने वहां के सुप्रसिद्ध प्रोक्टोलाजिस्ट डॉ.माइकेल फ्रेलिच (Michael Freilich) से प्रेसिडेंट की बीमारी के बारे में पुछा तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि हमारा शरीर सिटिंग टायलेट (कमोड) के लिए बना ही नहीं है बल्कि यह स्क्वेटिंग (भारतीय शैली) के लिए ही बना है l उन्होंने मीडिया को बताया था कि हिमोरायड्स में एनल केनाल की रक्त शिराएं (वेंस) फुल जाती हैं और कभी कभी उनसे रक्तस्राव भी होने लगता है l वैसे तो हिमोरायड्स मोटापे, एनल सेक्स और प्रिगनेंसी के कारण हो सकता है परन्तु सबसे बड़ा कारण है मलत्याग के समय का जोर (स्ट्रेन) l सिटिंग पोजिशन में स्क्वेटिंग की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा ज़ोर लगता है, जिसके कारण रक्त शिराएं फुल जाती हैं l यही वज़ह है कि लगभग पचास प्रतिशत अमेरिकन इस रोग से ग्रस्त हैं l डॉ.माइकेल फ्रेलिच ने अपने चिकित्सा विज्ञान के ज्ञान तथा अनुभवों के आधार पर बताया था कि स्क्वेटिंग कोलोन कैंसर से भी बचाती है पर इस दिशा में उन्होंने कोई रिसर्च नहीं की है l

इजरायली शोधकर्ता डॉ. डोव सिकिरोव ने 2003 में किये अपने एक अन्य अध्ययन में पाया कि स्क्वेटर्स को मल निष्कासन में औसत 51 सैकंड लगते हैं और सिटर्स को 130 सैकंड l उनका यह शोध अध्ययन डायजेस्टिव डिसीजेस एंड साइन्सेस में प्रकाशित हुआ था I उन्होंने इसके लिए एनो रेक्टल एंगल को जिम्मेदार ठहराया था, जो कि सिटिंग पोजिशन में कम हो जाता है और मलमार्ग को कुछ ज्यादा ही संकरा कर देता है I

इस अध्ययन को आगे बढाते हुए जापानी चिकित्सकों ने मलाशय यानी रेक्टम में रेडियो कंट्रास्ट साल्यूशन डाल कर वीडियोग्राफी की और पाया कि सिटिंग में एनो रेक्टल एंगल 100 डिग्री का होता है और स्क्वेटिंग पोजिशन में यह 126 डिग्री का हो जाता है l उनका यह अध्ययन लोअर यूरिनरी ट्रेक्ट सिमटम्स नामक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था l

हालांकि सिटिंग टायलेट के खिलाफ़ वैज्ञानिकों ने मोर्चा जिमी कार्टर को हुए कष्ट की घटना से काफ़ी पहले ही खोल दिया था l दरअसल 1960 और 1970 के दशक के दौरान इस अभियान ने अच्छा ज़ोर पकड़ा l बोकूस की गेस्ट्रोएंट्रोलाजी की टेक्स्ट बुक (1964) जो कि उस समय की बेहद प्रचलित और मानक पुस्तक मानी जाती थी, में स्पष्ट लिखा है कि मलत्याग के लिए स्क्वेटिंग ही आदर्श स्थिति है, जिसमें जांघे मुड़कर पेट को दबाती हैं l प्रसिद्ध आर्किटेक्ट एलेक्जेंडर कीरा ने 1966 में अपनी पुस्तक “द बाथरूम्स” में स्पष्ट लिखा है कि स्क्वेटिंग पोजिशन मानव शरीर के लिए सर्वथा अनुकूल है I

वर्तमान में एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका में ही 1.2 बिलियन लोग शौचालय नहीं होने से स्क्वेटिंग पोजिशन में ही मलत्याग करते हैं I उससे भी कहीं बहुत ज्यादा संख्या में लोग एशिया, मीडिल इस्ट और यूरोप के कई हिस्सों में आज भी स्क्वेटिंग के हिसाब से बनी टायलेट्स का ही इस्तेमाल करते हैं I

सिटिंग शौच का इतिहास

बताया जाता है कि अठारवीं सदी में शौच के लिए पूरी दुनिया के लोग घर से बाहर (यानी खुले में) ही ऊंकडू बैठकर शौच करते थे l सन 1850 के आसपास ब्रिटेन के किसी राजपुरुष की बीमारी के दौरान सुविधा की दृष्टि से शौच के लिए कुर्सीनुमा शौच शीट यानी कमोड जैसी व्यवस्था का आविष्कार किया था l बाद में तो गौरे अंगरेजों के राजा – रानियों को ख़ुश करने की नीयत से सुतारों और प्लम्बरों ने कुर्सी की डिजाइन में थोड़ा परिवर्तन करते हुए बैठक वाली शौच सुविधा को प्रचलित कर दिया l राज घराने के पीछे बिना सोचे – समझे भागने की मानवीय प्रवृति के चलते कमोड ने पश्चिम में व्यापक रूप धारण कर लिया l हालांकि उन्नीसवी सदी तक यह राजघरानों और प्रभावी लोगों की बपौती ही बनी रही l प्लंबर और केबिनेट बनाने वाले सोचते थे कि वे  लोगों का जीवन स्तर उठा रहे हैं l

जबकि हकीक़त यह है कि शरीर रचना और क्रिया विज्ञान के मुताबिक़ मल विसर्जन का प्राचीन तरीका ही पूर्णरूपेण वैज्ञानिक है l समूचे विश्व में यही प्राकृतिक तरीका सबसे ज्यादा प्रचलित रहा है l प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ.विलियम विल्स ने कमोड शैली को मानव शरीर रचना के सर्वथा विपरीत निरूपित किया है l

One thought on “मल विसर्जन : देसी या विदेशी

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. मैं इससे शत प्रतिशत सहमत हूँ. मैं स्वयं देशी तरीके के शौचालय का प्रयोग पसंद करता हूँ, परन्तु जब वह उपलब्ध नहीं होता, तो विदेशी तरीके के शौचालय में बैठना पड़ता है.

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