कविता

**भावनाओं का समंदर***


भावनाओं का एक समंदर,
उठता रहता है
अकसर मेरे अंदर!
कभी-कभी
उद्वेलित हो उठता है,
कभी खुशी से,
चहक उठता है!
बरसाती झरने की तरह ,
झरना चाहता है,
निर्जन वन मैं,
हर तरफ गूँज उठे,
जहाँ उसकी ध्वनी!
उससे झरते भावों को
सुन सके,
कोई परिंदा,समझ सके!
कभी बन
उफनती बरसाती नदिया,
बहा ले जाना चाहता है,
सारे भावों को!
हर रुकावट को हटा,
तीव्र-गति से!
बडा मुशकिल होता है,
इन भावनाओं को,
आहत करना!
सोचती हूँ???
क्यों न इन सारे,
विचारों कों,भावो को
मथ लूँ!
शायद मन का जहर निकल,
हाथ लग जाये अमृत!
कर दूँ उसे वितरित ,
समस्त जग मैं!
लोगों के दिल मैं बसे
जहर को,
बेअसर करने बाली
औषधि बना!
सत्ता के गलियारों मैं
छिड़क दूँ,
राजनीती जो सड़,गल,
तब्दील हो चुकी है,
एक जहरीली गैस मैं!
फैल रही है
जो पूरे देश मैं,
सुनामी की तरह!
बहा ले जा रही है ,
लोगो के विशवाश को,
पिघल रहे हैं जज्बात,
टूट रहे हें सपने,
क्षीण हो रहीं आशायें!
शायद ये” अमृत”
नया कुछ
चमत्कार करदे!
क्षीर सागर की तरह !
कोई” शिव”प्रकट हो ,
जो पीले, इस जहर को!
और बचाले इस देश को,
इस जहरीले,
राजनैतिक धुँअें के,
दुष्प्रभाव से !
मेरा मंथन जारी है….
काश कि कोई “शिव” फिर
अवतरित हो…..
भावनाओं का एक समंदर,
उठता रहता है
अकसर मेरे अंदर!
…राधा श्रोत्रिय”आशा”
१९-०३-२०१४

राधा श्रोत्रिय 'आशा'

जन्म स्थान - ग्वालियर शिक्षा - एम.ए.राजनीती शास्त्र, एम.फिल -राजनीती शास्त्र जिवाजी विश्वविध्यालय ग्वालियर निवास स्थान - आ १५- अंकित परिसर,राजहर्ष कोलोनी, कटियार मार्केट,कोलार रोड भोपाल मोबाइल नो. ७८७९२६०६१२ सर्वप्रथमप्रकाशित रचना..रिश्तों की डोर (चलते-चलते) । स्त्री, धूप का टुकडा , दैनिक जनपथ हरियाणा । ..प्रेम -पत्र.-दैनिक अवध लखनऊ । "माँ" - साहित्य समीर दस्तक वार्षिकांक। जन संवेदना पत्रिका हैवानियत का खेल,आशियाना, करुनावती साहित्य धारा ,में प्रकाशित कविता - नया सबेरा. मेघ तुम कब आओगे,इंतजार. तीसरी जंग,साप्ताहिक । १५ जून से नवसंचार समाचार .कॉम. में नियमित । "आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह " भोपाल के तत्वावधान में साहित्यिक चर्चा कार्यक्रम में कविता पाठ " नज़रों की ओस," "एक नारी की सीमा रेखा"

2 thoughts on “**भावनाओं का समंदर***

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता ! अब जहर पीने वाले नीलकंठ की तलाश है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी कविता .

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