धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आत्मा- एक मिथ्या

आत्मा का अस्तित्व हर धर्म में स्वीकार गया है , पत्न्तु जिस तरह से सभी धर्मो में मिथ्या रूप से ईश्वर की कल्पना गढ़ ली थी उसी प्रकार आत्मा की भी। दरसल आत्मा नाम की कोई चीज नहीं होती , जैसे ईश्वर की कल्पना धर्म समर्थको ने गढ़ी उसी प्रकार आत्मा की भी ताकि आम जनमानस को धर्म/ मजहब के जाल में आसानी से फसाया जा सके । एक तरह से आत्मा ‘ चारे’ का काम करती है जिसके अस्तित्व को स्वीकारने के बाद मनुष्य आसानी से ईश्वर की कल्पना में फंस जाता है। आत्मा को अजर अमर माना गया है।

आत्मा के समर्थको का कहना होता है की , स्पर्श, श्रमण, स्वाद,दृष्टि, आदि चेतनाओ के समूह को ‘ आत्मा’ कहा जाता है। जबकि वस्तिविकता यह है की ये चेतनाए शरीर के अलग अलग अंगो में होती हैं, और हर अंग दुसरे अंग से भिन्न हैं। इन्हें अंगो को ज्ञान्नेंद्रियाँ भी कहते हैं, अगर इन ज्ञान्नेंद्रियो का समूह ही आत्मा है तो किसी ज्ञानेन्द्री के ख़राब होने पर दूसरी ज्ञानेन्द्री द्वारा वह काम पूरा हो जाना चाहिए । या दुसरे अंग के बिना ही आत्मा को उसका ज्ञान हो जाना चाहिए था , जैसे यदि आँख खराब हो जाए तो नाक से देखा जा सकना चाहिए था किसी के कान ख़राब हो जाते तो जीभ से सुना जाना चाहिए।

पर ऐसा नहीं होता , प्रत्येक ज्ञानेन्द्री अपना अपना ही कार्य करती है , आँख सुनने का और कान देखने का कार्य नहीं कर सकते । जब प्रत्येक ज्ञानेन्द्री अपना अपना ही कार्य करती है , तो इस्मने आत्मा नाम की चीज कंहा से आई?
यदि चेतनाओ का समूह ही आत्मा है तो अंधे , काने, बहरे , गूंगे व्यक्ति की आत्मा अजर अमर, शाश्वत नहीं कही जा सकती । क्यों की यदि ऐसा व्यक्ति अपूर्ण कहा जा सकता है तो ऐसी आत्मा को भी अपूर्ण ही कहा जायेगा , तब आत्मा को शाश्वत, निष्कलंक, अखंड नहीं कहा जा सकता ।
अत: आत्मा केवल कल्पना मात्र है

संजय कुमार (केशव)

नास्तिक .... क्या यह परिचय काफी नहीं है?

4 thoughts on “आत्मा- एक मिथ्या

  • Man Mohan Kumar Arya

    आदरणीय केशव जी, आपके इस लेख को पढ़कर मैंने एक लेख “ईश्वर और जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण” लिखा है जो आज वेबसाइट पर अपलोड हो चूका है। कृपया इसे देख कर अपनी आख्या व विचार अंकित करने का कष्ट करें।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    केशव भाई , यह आस्तक नास्तिक का विचार दो परस्परविरोधी बातें हैं . जो लोग मानते हैं इन आत्मा परमात्मा की बातों को उनको नास्तिकता की बातें कहना बेमाने हैं लेकिन मैं आप की बातों से बहुत सहमत हूँ . कारण यह है कि अगर आत्मा है भी तो मुझे इस को सोचने की किया जरुरत है ? मैं एक सिख हूँ , जो हमारे ग्रन्थ में लिखा है उस से मुझे बहुत कुछ प्राप्त हुआ लेकिन बहुत बातें ऐसी भी हैं जिन को मानने की मुझे कोई जरुरत नहीं है . जो लोग मानते हैं उन को गुड लक . मेरी वाइफ भी मेरे विचारों को मानती है , जिंदगी में कभी हम ने कोई धार्मिक रस्म नहीं करवाई , चन्द लफ़्ज़ों में कहूँ हमारी सख्त मिहनत से कमाई दौलत फजूल धार्मिक कर्मकांडों के लिए नहीं है . हम तो सिर्फ अगर हो सके तो किसी गरीब की मदद ही करते हैं . यह गियानी पुजारी बाबे संतों के लिए हमारी दौलत नहीं है . ऐसी फजूल बातों को हम सोचते ही नहीं हैं . हम सारा नास्तिक परिवार हैं और फखर से कह सकता हूँ कि हम सुखी परिवार हैं . बहुत दफा जब लोग बाबा संतों से धोखा खाते हैं तो मुझे उन पर बहुत गुस्सा आता है . घर में खाने को रोटी नहीं है लेकिन , हकूमत के खिलाफ नारे लगाते हैं लेकिन बाबा संतों पुजारीओं को जरुर दान देना है . यह दान का विचार कि अगर दान करोगे तो आप का अगला जनम सुधर जाएगा , तो मैं उन लोगों को पूछता हूँ कि अगर दान ही करना है तो किसी गरीब की मदद कियों नहीं कर देते , धार्मिक आस्थानों पर ही कियों देना है यहाँ पहले ही नोटों , सोने चांदी के ढेर लगे हुए हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत खूब भाई साहब. आस्तिक या नास्तिक होना अलग बात है. गरीबों की सहायता करना हमारा कर्तव्य है. बाबाओं पर धन लुटाना महामूर्खता है. धन का सदुपयोग समाज के हितकारी कामों में ही किया जाना चाहिए, न कि हरामखोरी को बढ़ावा देने पर.

  • विजय कुमार सिंघल

    आपका लेख एकांगी और कमजोर है. अगर आत्मा नहीं होती, तो मृत व्यक्ति के शरीर में से क्या निकल जाता है? उसके सारे अंग सही हों तो भी कार्य क्यों नहीं करते या दुबारा कार्य क्यों नहीं करते? वे अंग ही किसी अन्य जीवित व्यक्ति को लगा देने पर कार्य कैसे करने लगते हैं?

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