कविता

कविता : दहेज़ – २

बहू ने जैसे ही घर में कदम रखा
सास बोली-
बेटी गहने जेवर उतार दो
आजकल घर वालों पर भी भरोसा नहीं
शादी ब्याह का घर है
कहीं कुछ खो न जाये
बहू बोली-
मांजी, दूसरों की बारी तभी आएगी
जब मेरे पीहर से कुछ न देने पर
आग की लौ घर से बाहर जाएगी!

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने ektasarda3333@gmail.com

One thought on “कविता : दहेज़ – २

  • विजय कुमार सिंघल

    कविता का विषय अच्छा है, लेकिन पूरी तरह समझ में नहीं आई.

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